आज आपसे मिलवाता हूं बाड़मेर के नारायण सिंह भायल से जो ताज होटल ग्रुप में जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत है
प्रस्तुत है एन रघुरामन का लेख:
हर किसी की तरह मेरे लिए भी हर शाम वाराणसी में गोधूलि वेला में होने वाली गंगा आरती बहुत ही प्रभावशाली और आह्लाददायक आध्यात्मिक रस्म है। उतनी ही शक्तिशाली मेरे भीतर यह जानने की तड़प भी थी कि आरती की यह परम्परा वास्तव में कब शुरू हुई, किसने शुरू की और यह कितनी लोकप्रिय है। कहानी कुछ इस तरह से है।
राजस्थान के बाडमेर के मूल निवासी नारायण सिंह भायल 1997 में मध्यप्रदेश के अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल खजुराहो में पदस्थ थे और उनका काम भी बहुत अच्छा था। CMJ लेकिन, ताज होटल समूह की तब एक नीति थी, जिसके तहत अपने पद पर तीन साल पूरे करने वाले हर व्यक्ति का दबादला किया जाता था। इसलिए नारायण का तबादला वाराणसी कर दिया गया। उन्हें घाट पर गंदगी से नफरत होती और वे लगातार सोचते रहते कि वे इसे कैसे साफ कर सकते हैं।
15 अगस्त 1997 को उन्होंने ‘ग्रीन काशी-क्लीन काशी’ अभियान शुरू किया और स्थानीय नगर निगम के तालमेल से उन्होंने उस पूरे हिस्से में पौधारोपण किया जहां उनका होटल स्थित था। जनवरी 1998 को उन्होंने उक्त नारे का इस्तेमाल पूरे दशाश्ममेध घाट की सफाई के लिए किया, जिसकी एक स्थानीय और प्रभावशाली व्यक्ति सत्येन्द्र मिश्र ने खूब सराहना की। घाट पर उनकी एक इमारत भी थी। उन्होंने उस बड़े काम में नारायण की खूब मदद की। इस तरह दोनों दोस्त हो गए। नारायण ने घाट पर सारे लोगों के लिए आरती कराने का विचार रखा। तब तक मिश्रा व्यक्तिगत स्तर पर आरती करते थे, जो उनकी आस्था का हिस्सा थी। मिश्रा आरती को सार्वजिक रस्म बनाने पर सहमत हो गए। उन्होंने इसके लिए एक गैर-सरकारी संस्था गंगा सेवा निधि (जो अब नहीं है) का रजिस्ट्रेशन कराया और नवंबर 1998 में उन्होंने आरती करने वाले तीन लोगों के साथ यह रस्म शुरू कर दी। लेकिन, हर दिन आरती के पहले घाट साफ करना और फिर आरती कराना एक मशक्कत ही थी। CMJनारायण ने अपने मैनेजमेंट को पत्र लिखकर दो डीज़ल पम्प के साथ घाट पर हाइड्रेंट पाइपलाइन लगाने के लिए 2 लाख रुपए का दान देने और रोज की गतिविधियों को अंजाम देने के लिए सालाना 30 हजार रुपए की व्यवस्था करने की गुजारिश की। उनका मैनेजमेंट सहमत हो गया। मानसून में पाइप लाइन के मुंह सील कर दिए जाते और दो डीज़ल पम्प निकालकर सुरक्षित रख दिए जाते। उसके बाद आरती की रस्म आसान हो गई पर वह उस वक्त आज की तरह लोकप्रिय नहीं थी।
वर्ष 1999 की शुरुआत में बिड़ला परिवार की चार पीढ़ियां नारायण के प्रबंध वाली ताज़ प्रापर्टी में व्यक्तिगत धार्मिक गतिविधियों के लिए एक किचन सहित पूरा फ्लोर चाहती थीं। नारायण ने अपने दायरे से आगे बढ़कर उनकी मदद की, जिससे बिड़ला खुश हो गए और फिर हिंडाल्को अध्यक्ष अग्रवाल ने नारायण के आगे मदद का प्रस्ताव रखा, जिन्होंने वादा किया कि जब समय आएगा, वे अग्रवाल साहब से मदद जरूर लेंगे। CMJ
इस बीच, भारतीय वायुसेना के 20वें प्रमुख शशीन्द्र पाल त्यागी भी वहां ठहरे और नारायण के स्वागत-सत्कार से बहुत प्रभावित हुए। 1999 वह वर्ष था जब दुर्भाग्य से पाकिस्तान के खिलाफ हुए करगिल युद्ध में हमारे कुछ सौ जवानों को बलिदान देना पड़ा। इन शहीदों में से कम से कम 19 जवान इलाहाबाद, वाराणसी और गोरखपुर शहरों के थे। जनमानस में उनके प्रति ऊंची भावनाएं थीं।
शहीदों के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में और उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए नारायण ने एक ऊंचे बांस पर दिया लगाकर प्रार्थना के साथ होने वाली पुरानी रस्म में नया आयाम जोड़ा। बिड़ला परिवार ने इस आयोजन के लिए उदारता से दान दिया। तब के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने कार्यक्रम का उद्घाटन किया और एयर मार्शल त्यागी ने ‘अस्सी घाट’ के नाम से मशहूर सभी 84 घाटों पर दिये जलाए जाने पर हेलिकॉप्टरों से पुष्प वर्षा कराई। 19 शहीदों के परिवारों को भी इस आयोजन में आमंत्रित किया गया था, जिसने सभी के लिए आयोजन को भावुक बना दिया और फिर बाद में आरती की यह रस्म लोकप्रिय हो गई। धीरे-धीरे नारायण आरती कराने वालों को सात तक ले गए और आज भी यह संख्या कायम रखी गई है। इस तरह कुछ लोगों द्वारा शुरू की गई यह आरती आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसी हस्तियों को भी आकर्षित करती है।CMJ
फंडा यह है कि यदि आप अपने जॉब का संपूर्ण दायित्व ले लेते हैं, उसकी ओनरशिप ले लेते हैं तो अंतत: आप एक ब्रैंड निर्मित कर देते हैं। जैसा गंगा आरती के बारे में हुआ।
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