जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. सब कुछ शांत था. सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसे.
वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे. एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी.
तभी उनकी नज़र एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं. उन्होंने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की.
तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए. रानी की हड्डियाँ क़रीब-क़रीब राख बन चुकी थीं.
इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, "हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था. सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था. कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया. हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी."
तात्या टोपे
रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया. इरा मुखोटी अपनी किताब 'हीरोइंस' में लिखती हैं, "दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया. बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी. 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई. जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे. उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को 'झाँसीवाले' कहते हैं."
दो दिन बाद जयाजीराव सिंधिया ने इस जीत की खुशी में जनरल रोज़ और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया.
रानी की मौत के साथ ही विद्रोहियों का साहस टूट गया और ग्वालियर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया.
नाना साहब वहाँ से भी बच निकले, लेकिन तात्या टोपे के साथ उनके अभिन्न मित्र नवाड़ के राजा ने ग़द्दारी की.
तात्या टोपे पकड़े गए और उन्हें ग्वालियर के पास शिवपुरी ले जा कर एक पेड़ से फाँसी पर लटका दिया गया.
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