कथित किसानों का विद्रूप चेहरा देश के सामने आ चुका है. देश के बुद्धिजीवियों, मीडिया के संजीदा तबके ने पहले ही इस आंदोलन के बीच घुस आए तथाकथित किसान नेताओं पर सवाल उठाए थे लेकिन सरकार की आवश्यकता से अधिक ढील की वजह से राजधानी दिल्ली में जो हुआ उससे पूरा देश और लोकतंत्र शर्मसार हुआ है. तो क्या किसानों की आड़ में खालिस्तान समर्थित उग्रवादियों ने जो किया उसको सरकार या पुलिस भांप नहीं पाई?
यह सवाल आज हर भारतीय के मन में कौंध रहा है. अगर देखा जाए तो इसे गृह मंत्रालय और खुफिया एजेंसियों की नाकामी भी कहा जा सकता है. लेकिन गंभीरता से विचार किया जाए तो कथित किसानों की उदद्ंडता के अतिरेक में सरकार को ये लाभ जरूर होता हुआ दिखाई दे रहा कि अब शायद उसे किसान आंदोलन की घेराबंदी से थोड़ी राहत मिल जाए और इसीलिए इस आंदोलन को जानबूझकर ढील दिए जाने से भी इंकार नहीं किया जा सकता. इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली में गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली को छूट दिया जाना है. बहरहाल सरकार ने ताबड़तोड़ एक्षन लेकर 35 से अधिक किसान नेताओं पर विभिन्न धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज कर ली है. अब देखने की बात ये होगी कि आखिर इन उग्र और पथभ्रमित किसान नेताओं को सरकार सख्त सजा दिला पाती है या नहीं.
आश्चर्य की बात ये है कि 26 जनवरी को जो हुआ उसका अंदेशा सरकार को भी था और माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भी रहा होगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गंभीरता से विचार न करते हुए आंखों पर पट्टी बांध ली और गेंद केंद्र और पुलिस के पाले में फेंक दी. खैर! हाल फिलहाल पुलिस एक तरफ जहां खुद पर हुई बर्बर कार्रवाई को लेकर और सख्ती के मूड में है तो केंद्र सरकार राहत महसूस कर रही होगी क्योंकि आज ही किसान आंदोलन से दो प्रमुख संगठनों ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं. अब देखने की बात ये होगी कि किसान आंदोलन की धार पहले की तरह बरकरार रह पाएगी या फिर किसान अपना बोरिया बिस्तर समेटकर अपने घरों की और लौट जाएंगे.
लेख: जयराम चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली
(डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति troopel उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)
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