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राई नृत्य (बुंदेलखंड का सुप्रसिद्ध नृत्य)

राई नृत्य बुंदेलखंड का सुप्रसिद्ध नृत्य है। यह गुजरात के गरबा की भाँति लोकप्रिय है। यह बारहों महीने नाचा जाता है। बुंदेलखंडी जनमानस का हर्ष और उल्लास इस लोकनृत्य में अभिव्यक्त होता है। राई नृत्य में बेड़नियाँ नाचती हैं और बेड़नी के अभाव में स्त्री-वेशधारी पुरुष नाचते हैं। इस नृत्य के साथ फागें गाई जाती हैं। राई के गीत ख्याल, स्वाँग आदि और भी कई प्रकार के होते हैं। मृदंग की थाप पर घुंघरुओं की झंकारती राई और उसके साथ नृत्यरत स्वांग न केवल अपढ़ और ग्रामीणों का मनोरंजन करते हैं, बल्कि शिक्षित और सवर्ण भी इसे देखकर आल्हादित हो जाते हैं। 

सैरा नृत्य(बुन्देली लोकनृत्य)

नाचने वाली बेड़नी के साथ मृदंग बजाने वाला नाचता है और नाचते हुये बेड़नी के समीप जाकर नृत्य करता है। इस नृत्य में राई जलती हुई मशाल को लेकर बेड़नी के मुख के पास किये रहता है, जिससे दर्शकों को उसका चेहरा, स्पष्ट भावभंगिमाओं के साथ दिखाई देता है। इस कला के पुजारी बुंदेलखंड में बहुत हैं। राई नृत्य के साथ यहाँ विशेषतः सुप्रसिद्ध लोककवि ईसुरी की फागें गाई जाती हैं। ईसुरी की फागों को प्रसिद्धि भी सच पूछा जाय, तो रंगरेजन नर्तकी और गायक धीरे पण्डा ने, इसी नृत्य के द्वारा दिलाई थी। 

यहाँ एक फाग उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-

’बजरई आधी रात बैरन मुरलिया जा सौत भई।

बन से तू काटी गई, छेदी तोय लुहार।

हरे बांस की बांसुरी मनो निकारो ने सार।

बैरन मुरलिया जा सौतन भई।

पोर-पोर सब तन कटे, हटे न औगुन तौर।

हरे बांस की बांसुरी ले गई चित्त बटौर।

बैरन मुरलिया तू सौत भई।’

दिवारी नृत्य (दीपावली के अवसर पर गांव के निवासी इस नृत्य में भाग लेते हैं)

ईसुरी की फागों में न केवल शृंगार रस का प्राचुर्य है, अपितु लोकमंगल की भावना के अभिव्यंजक विविध रसों का भी समावेश है। जैसे शांत रस-

’बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की।

कच्ची भींत उठी माटी की, छाई पूस-चारे की।

बेबन्देज, बड़ी बेबाड़ा, जौ में दस द्वारे की।

एकउ नई किवार-किबरियाँ, बिना कुची तारे की।

’ईसुर’ चाये निकारो, जिदनाँ हमें कौन वारे की।’

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