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रहस (ब्रज की रासलीला से प्रभावित बुन्देली लोकनाट्य)

ब्रज की रासलीला से प्रभावित बुन्देली अंचल में ’रहस‘ परम्परा प्राप्त होती है। इसके दो रूप प्रचलित है-एक, कतकारियों की रहस लीला और दूसरा लीला नाट्यं कतकारियों का रहस बुन्देलखण्ड की व्रत परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से, पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करने वाली कतकारियां गोपी भाव से जितने क्रिया व्यापार करती हैं, वे सब ’रहस‘ की सही मानसिकता बना देते हैं।

जवारे (बुन्देलखण्ड के अपने अनोखे त्यौहार)

’रहस‘ में अधिकांशतः दधिलीला, चीरहरण, माखन चोरी, बंसी चोरी, गेंद लीला, दानलीला आदि प्रसंग अभिनीत किए जाते हैं।

’रहस‘ का मंच खुला हुआ सरोवर तट, मंदिर प्रांगण, नदीतट और जनपथ होता है। कतकारी वस्त्रों में परिवर्तन करके पुरूष तथा स्त्री पात्रों का अभिनय करती हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकांशतः पद्यमय होते हैं। बुंदेलखण्ड में कतकारी छैंकवे को प्रसंग बहुत महत्त्वपूर्ण है।

गनगौर-पूजन(बुन्देलखण्ड के तीज-त्यौहार)

लीलानाट्य के रूप में अभिनीत ’रहस‘ अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चैपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार ’रास चैंतरा होता है।‘ ’राधा-कृष्ण‘ बनने वाले पात्र ’सरूप‘ कहे जाते हैं। वाद्य के रूप में ’मृदंग एवं परवावज‘ (वर्तमान में ढोलक या तबला) वीणा के बदले हारमोनियम, मंजीरे आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार नृत्य अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है।

बुन्देलखण्ड में कृष्ण विषयक रहस के अतिरिक्त राम विषयक रहस भी मिलते हैं। ये रहस बुन्देली प्रदेश में राजमहल के अन्तःपुर तथा उद्यानों में क्रियान्वित होते थे।

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