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स्वांग (बुन्देलखण्ड तथा अन्य अंचलों का अत्यंत प्रसिद्ध लोकनाट्य)

स्वांग बुन्देलखण्ड तथा अन्य अंचलों में अत्यंत प्रसिद्ध है। स्वांग की मूलप्रवृत्ति व्यंग्यपूर्ण अनुकृति या नकल की है और यह आदि लोकनाट्य का बहुत प्राचीन रूप है। यह लोकनाट्य रूप धरना, वेष बनाना, नकल करना, ढोंग रचना आदि अभिव्यक्तियों में अर्थव्याप्ति है।


गनगौर-पूजन(बुन्देलखण्ड के तीज-त्यौहार)

स्वांग की प्राचीनतर नाट्य परम्परा का उल्लेख सिद्धकण्हपा ने विक्रम की नवीं शताब्दी में किया था। उन्होंने डोमनी के आह्वान गीत में स्वांग का उल्लेख किया है। डोम जाति द्वारा स्वांग भरने की परम्परा अभी भी दिखाई पड़ती है। डोम स्त्रियां पुरूषों का वेष बनाकर स्वांग भरती थी। आल्हखण्ड मे विभिन्न अवसरों पर जोगी के स्वांग का उदाहरण मिला है। जायसी ने भी उल्लेख किया है कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ भेजने के लिए जोगिन का सफल स्वांग करने वाली एक वेश्या को दूती बनाकर चित्तौड़ भेजा था- ’पातुरि एक हुतित जोगी स्वांगी, साह अखोर हुत ओहि मांगी। स्वांग की परम्परा मौखिक रूप से विद्यमान थी किन्तु 19वीं शती में इन्हें लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया गया।

रहस (ब्रज की रासलीला से प्रभावित बुन्देली लोकनाट्य)

स्वांग लोकनाट्य का विषय सामाजिक, कुरीतियों, विद्रूपताओं पर तीक्ष्ण व्यंग्य होता है। इनके लिए गांवों में कोई मंच नहीं बनाया जाता, कस्बों में मंच निर्माण होता है। स्वांग में विदूषक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। स्वांग में स्त्रियों की भूमिका अधिकांशतः पुरूष पात्रों द्वारा ही अभिनीत की जाती है। संगीत में ढोलक, ढ़पला, नगड़िया, मृदंग आदि वाद्य प्रमुख रूप से अपनाए जाते हैं। शृंगार के लिए छुई, राख, कोयला, काजल आदि वस्तुएं उपयोग में लायी जाती हैं।

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