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कांडरा(लोकनृत्य जो आज लोकनाट्य के रूप में है प्रसिद्ध)

कांडरा लोकनाट्य प्रारंभ में राई की तरह का लोकनृत्य था किन्तु भक्तिकाल में रास परम्परा से प्रभावित एवं आकर्षित हो निर्गुण ब्रह्म के भक्तों ने कांडरा  नृत्य का विकास किया। इसमें निर्गुनिया भजन गाता है तथा गीत के अनुरूप आंगिक अभिनय कर नृत्य तथा हाव-भाव प्रदर्शित करता है। कांडरा के इस रूप में संवादात्मकता का प्रयोग एक तो निर्गुण-सगुणमतों के लम्बे समय तक क्रियाशील रहने पर थकान के कारण प्रसंग, घटना, विनोद, कथा गूंथना आवश्यक समझा गया। फलस्वरूप इसमें पहले गीतिबद्ध संवाद, फिर कथा तथा स्वांग शैलियों का आगमन हुआ।

स्वांग(बुन्देलखण्ड का अत्यंत प्रसिद्ध लोकनाट्य)

कांडरा का मंच खुला होता है। मंच के पृष्ठ भाग के करीब वादक-मृदंग, कसावरी, मंजीरा और झींका पर संगति करते खड़े रहते हैं। जबकि नर्तक सारंगी वादन करता है और निर्गुनिया मंगला-चरण प्रारंभ। वादक वेशभूषा पर ध्यान नहीं देते किन्तु मुख्य नायक कांडरा जो सम्भवतः कान्ह, का स्वरूप है, सराई पर रंग बिरंगा जामा, पहनकर, सिर पर कलंगीदार पगड़ी बांधता है। जामा पर सफेद या रंगीन कुर्ती पहनता है। बीच-बीच में फिरकी की भांति नृत्य करता है।

कभी-कभी दलों की प्रतियोगिता में विजयी दल पराजित दल से कलंगी छीन लेता है।

निरगुनिया मंगलाचरण के बाद प्रेयपरक गीतनाट्य प्रारंभ होते हैं। जिसमें कथानुसार स्त्री-पुरूष पात्र अभिनय करते हैं। श्रृंगार सामग्री का विशेष प्रयोग नहीं होता। ढोला मारू, सारंगा-सदाबिरछ आदि प्रसिद्ध आख्यान रात-रात भर चला करते हैं।

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