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बुन्देलखंड की रामलीला की कुछ विशेषताएं

बुंदेलखंड की रामलीला के सांस्कृतिक इतिहास में ऐसे प्रामाणिक साक्ष्य मिलते हैं, जो यह सिद्ध कर देते हैं कि बुन्देलखंड की रामलीला  और रामसंस्कृति बहुत प्राचीन है। राम की लीलाओं के अंकन यहाँ की मूर्तिकला के विशिष्ट अंग रहे हैं।राम और कृष्ण भारतीय साहित्य और कलाओं के प्रतीक रहे हैं। राम-कृष्ण भारतीयता की पहचान हैं। लीला लोक नाट्य में दो विशिष्ट धाराएँ रही हैं। एक रासलीला और दूसरी रामलीला।

 


बुन्देलखंड की रामलीला उद्भव और विकास 

कुछ विद्वानों का मत है कि पहले रासलीला का मंचन हुआ, बाद में उसी के अनुसरण से रामलीला का उदय हुआ। लेकिन रामलीला का लीला-रूप रासलीला से भिन्न रहा है। दोनों के मूल आधारों में भी भिन्नता है।

रासलीला या ‘रहस’ (बुंदेलखण्ड के रासलीला का नाम) ब्रज की रासलीला से प्रेरित होकर 17 वीं शती में विकसित हुई थी, भले ही यहां लीला की रचना 15 वीं शती में होने लगी थी। रामलीला का मंचन रासलीला से पुराना है और उसकी प्राचीनता के लिए बुंदेलखण्ड की विशिष्ट स्थिति जिम्मेदार है।

बुंदेलखण्ड की रामलीला की विशेषता

बुंदेलखण्ड अंचल की स्थिति इसलिए विशिष्ट है कि रामसंस्कृति का प्रमुख केन्द्र-चित्रकूट इसका पवित्र तीर्थ रहा है। एक तो बनवास की अवधि में राम यहाँ ठहरे थे। भरत ने भरद्वाज मुनि से चित्रकूट जाने का मार्ग पूछा था, तब मुनि ने कहा था- यहाँ से ढाई योजन की दूरी पर एक निर्जन बन में चित्रकूट नामक पर्वत है। उसके उत्तरी किनारे से मन्दाकिनी नदी बहती है, जिसे पार करने पर चित्रकूट पर्वत मिलेगा। वहाँ पहुँचकर नदी और पर्वत के बीच तुम राम की पर्णकुटी देखोगे।

दूसरे, राम और भरत का इतिहास प्रसिद्ध मिलन यहीं हुआ था जिसने , जिसने भ्रातप्रेम और त्याग के मूल्यों की प्रतिष्ठा की थी। तीसरे, चित्रकूट के समीप अत्रि, शरभंग आदि ऋषियों के आश्रम थे, जिनसे आश्रमी संस्कृति पनपी। इन कारणों से रामयण काल में ही चित्रकूट रामसंस्कृति का केन्द्र बन गया था।

अयोध्या पर बाहरी आक्रमण होने से सभी रामभक्त संत सुरक्षा के लिए चित्रकूट में आ बसे थे। चित्रकूट पर्वतों और वनों से घिरा होने के कारण चारों ओर से सुरक्षित था। कविवर रहीम ने तो यहाँ तक कह दिया था –‘जापर विपदा परत है, सो आवत इहि देस’

रामसंस्कृति की प्राचीनता

बुन्देलखण्ड के सांस्कृतिक इतिहास में ऐसे प्रामाणिक साक्ष्य लिते हैं, जो यह सिद्ध कर देते हैं कि इस जनपद में रामसंस्कृति अधिक प्राचीन है और राम की लीलाओं के अंकन यहाँ की मूर्तिकला के विशिष्ट अंग रहे हैं। वाल्मीकि के महाकाव्य -‘रामायण’ से स्पष्ट है कि इस जनपद की वन्य जातियों ने राम जैसे वीर का स्वागत करना अपने हित में जरूरी समझा था।

शबरी की प्रतीक्षा शबरों और सौंरों की ही नहीं, सभी आटविक जातियों की थी। जब राम आये , तब राम संस्कृति भी आई और जब राम का स्वागत हुआ, तब राम संस्कृति की प्रतिष्ठा हुई। और जब राम संस्कृति की प्रतिष्ठा हुई तो तभी रामराज्य की कल्पना हुई , जब राम राज्य की कल्पना हुई तो रामराज्य स्थापित हुआ । महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ में चित्रकूट के ‘रामगिरि आश्रम’ को एक प्रसिद्ध रामतीर्थ कहा गया है।

भारतीय मूर्तिकला में राम की लीलाओं का शिल्पांकन पहले पहले नचना (जिला पन्ना) और उसके बाद देवगढ़ (जिला झाँसी) में हुआ। नचना में भारत का सबसे प्राचीन राममंदिर था। लीला से संबंधित शिल्पपट्टों में शूर्पणखा का प्रणय-निवेदन, पंचवटी-निवास, सीता से रावण की भिक्षा-याचना, वानरों से राम का विचार-विमर्श, सुग्रीव के लिये अभय-संदेश, सेतु-निर्माण और राम का समुद्र पर कोप उल्लेख्य है। नचना की कला 5वीं शती की है, जबकि देवगढ़ की 6वीं शती की।

देवगढ़ के विष्णुमंदिर में उपलब्ध फलकों में शूर्पणखा-प्रसंग, बन-गमन, अहिल्योद्धार,  अत्रि ऋषि के आश्रम में, राक्षस-बध, सीता-हरण, राम से हनुमान की भेंट, ताड़-भेदन, सुग्रीव को माला पहनाना, बालि सुग्रीव-युद्ध, सुग्रीव पर लक्ष्मण का रोष, सेतु-निर्माण, सीता को त्रास देता रावण, संजीवनी बूटी लेकर जाते हनुमान आदि उल्लेखनीय हैं। इन उदाहरणों से सिद्ध है कि इस जनपद में 6वीं शती तक रामकथा का प्रसार हो चुका था।

बुन्देलखंड मे रामलीला की प्राचीनता

‘रामायण’ से स्पष्ट है कि वाल्मीकि के समय लव-कुश ने रामकथा का गायन किया था। उनसे मिलता-जुलता ‘कुशीलव’ शब्द यह दर्शाता है कि रामकथा लोकमंच पर पहले से अभिनीत हो रही थी, बाद में उसे लिपिबद्ध किया गया था। शब्दकोशों में ‘कुशीलव’ का अर्थ ‘नट’ भी दिया है, जिसका संबंध ‘अभिनय’ से है। महाभारत में ‘रामायण नाटक’ खेले जाने का उल्लेख मिलता है। हरिवंशपुराण में भी रामलीला पर आधारित नाटक मंचित होने का उल्लेख है।

विद्वानों ने हरिवंशपुराण को 5वीं शती ई.पू. का बताया है। दक्षिण में ‘दशावतार लीलाएँ’ होती थीं। महाराष्ट्र में एक लोक नृत्य-नाट्य परम्परा है, जिसमें दस अवतारों की कथा अभिव्यक्त होती है। नृत्य से ही नाट्य का विकास हुआ है। इसी रूप में भरत नाट्यम्, ओडिसी आदि में दशावतार की कथा अंगभूत हो गयी है। दक्षिण में विष्णु-पूजा की प्रधानता रही, इसीलिए उनके दस अवतारों की कथा नृत्य से, फिर नाट्य से जुड़ी। मंदिरों की शिल्पपट्टों में भी दशावतार की लीलाओं के दृश्य अंकित हुए। बाद में शिव, राम, कृष्ण, वामन, नृसिंह आदि की लीलाओं को उकेरा गया ।

अभिनय की दृष्टि से यह बुन्देलखंड लोकनाट्य- ‘स्वाँगों’ के लिए विख्यात था। सिद्ध संतकवि कण्हपा (9वीं शती) ने डोम जाति द्वारा ‘स्वांग’ करना लिखा है। लेकिन जनपदीय साक्ष्य में उपलब्ध सबसे प्राचीन नाट्यकार वत्सराज के रूपक हैं, जिनमें भाण, प्रहसन आदि नाट्यरूप ‘स्वाँग’ के ही विकसित रूप हैं।

बुंदेलखण्ड में लोकमंच बहुत प्राचीन काल से विद्यमान रहा है, लेकिन ‘मंच’ का एक प्रामाणिक संदर्भ महाकवि भवभूति (7वीं-8वीं शती) के प्रसिद्ध नाटक- ‘उत्तररामचरित’ और ‘महावीर चरित’ में मिलता है, जो कालपी के कालप्रियनाथ-मंदिर में मंचित हुआ था। दोनों नाटकों में रामकथा है और दोनों का मंचन कालपी के सूर्यमंदिर में यात्रा या मेले के अवसर पर हुआ था। दूसरा संदर्भ हिन्दी के प्रथम रामकाव्य- विष्णुदासकृत ‘रामायन कथा’ है, जिसकी रचना संवत् 1499 वि. (1442 ई.) में हुई थी। इस प्रबंध में ‘राम’ को ही ‘नारायण’ या विष्णु माना गया है।

विष्णुदास (15वीं शती) से लेकर बोधा (18वीं शती के अंत) तक अखाड़े के उल्लेखों के लोकमंच के उत्कर्ष का पता चलता है। महाकवि तुलसी ने तो स्पष्ट कर दिया था- ‘हिलमिल करत सवाँग सभा रसकेलि हो’ (रामललानहछू)। अभिनय के इन ऐतिहासिक संकेतों से प्रकट है कि रामलीला का मंचन बहुत पहले से होता रहा है। कुछ विद्वान तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ को नाटकीय वर्णन मानते हैं, तो कुछ ‘अयोध्याकाण्ड’ को दुखान्त नाटक (ट्रेज़डी)।

लेकिन विष्णुदासकृत ‘रामायन कथा’ का प्रारम्भ तो संवादों से होता है। उसमें बाल्मीक उवाच, मंत्री उवाच, अंतरकथा, विप्रोवाच, रामोवाच, रिषीस्वर उवाच, राजोवाच आदि से नाटकीय शैली स्पष्ट है। इस प्रकार विष्णुदास, तुलसी और फिर केशव,  राम की लीलाओं की नाटक परम्परा से प्रभावित रहे हैं। केशवकृत रामचंद्रिका तो नाटकीय संवादों का भण्डार है। इन उदाहरणों से रामलीला का लोकनाट्य के रूप में अभिनय और उससे प्रेरित होकर रामपरक प्रबंधकाव्यों की रचना स्वतः सिद्ध है।

बुन्देलखण्ड में रामलीला नाटकों के रूप में न होकर लोकनाट्य के रूप में लोकप्रचलित थी। विष्णुदास ने ‘अखाड़ा’ लोकमंच और तुलसी ने ‘स्वाँग’ लोकनाट्य का उल्लेख कर रामलीला के लोकनाट्य रूप की पुष्टि की है। चित्रकूट के पास के क्षेत्र में रामकथा-संबंधी लोकनाट्य प्रचलित थे। चंदेलों के समय राउतों ने तालाबों और मंदिरों का निर्माण करवाया था। वे कलाप्रिय थे और लोकनाट्यों में रुचि लेते थे।

तुलसी ने भी चित्रकूट-प्रसंग में ‘स्वाँग’ का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे लोकनाट्यों से पूर्णतया परिचित थे और साथ ही रामलीला अभिनीत करने वाले लोकनाट्यों से पूर्णतया परिचित थे और साथ ही रामलीला अभिनीत करने वाले लोकनाट्य- स्वाँगों से भी। रामलीला-परक स्वाँगों से प्रेरित होकर तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ की रचना की और रामलीला के परम्परित रूप का परिष्कार किया।

रामलीला और तुलसी दास

तुलसी दास ने रामचरित को ही लीला कहा है और उनकी ‘रामचरित-मानस’ में राम का चरित्र तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप शक्तिस्वरूप और ऐश्वर्यपरक मर्यादा से प्रेरित लोकरंजक रहा हैं।  विजातीय संस्कृतियों के आक्रमणों से रक्षा के लिये रामचरित्र और रामलीला के प्रदर्शन और सामाजिक जागरण की अति आवश्यकता थी। संभवतः इसीलिए तुलसी ने रामलीला को नयी दिशा दी। तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ की विषयवस्तु और नाटकीय शैली को रामलीला से समन्वित कर आमूल परिवर्तन उपस्थित कर दिया।

राम का राज्य त्यागकर बन-गमन, राक्षसों का संहार और रामराज्य की स्थापना ही लीला-प्रदर्शन के केन्द्र बिन्दु बन गये। कवि अपने देश की दासता से दुखी था, इसीलिए उसने इन राजनीतिक आदर्शों को प्रकाश में रखने का प्रयत्न किया था। सभी जातियों और वर्गों के सहयोग से महतव और व्यवस्था देने का अर्थ यही था कि ये आदर्श जन-जन तक पहुंचें। तुलसी ने एक ही सार्थक उद्देश्य से जहाँ काशी में असी घाट की रामलीला को व्यापक रूप दिया, वहाँ अयोध्या और विशेषतः चित्रकूट में रामलीला का समारम्भ किया था।

रामलीला की परम्परा नगर-नगर और गाँव-गाँव में फैल गयी। रामलीला और जनपद रामलीला की कथावस्तु तो एक है, परन्तु हर जनपद ने उसमें स्थानीय रंग भर दिये हैं। यही कारण है कि रामलीला के विभिन्न रूप और विविध प्रदर्शन-शैलियाँ उभरकर विकसित हुईं। उदाहरण के लिए, रामनगर (काशी) वाराणसी की 40 दिन तक 10-12 किलोमीटर के लीला-क्षेत्र में खेली जाने वाली रामलीला का राजसी वैभव विख्यात है।

‘नांरदवाणी’ में सामूहिक व्यासवचनों का गायन, संवादों में पुरानी हिन्दी में भोजपुरी का रंग, सहज प्रदर्शन-शैली और शान्त वातावरण उसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं। अयोध्या की रामानंदीय रामलीला रामानंदी संतों से संचालित और निर्देशित, आध्यात्मिक और रामयुगीन आदर्शों से संग्रहित तथा शास्त्रीय संगीतात्मकता से संपुष्ट है। किशोर पात्र, स्त्री पात्रों की वर्जना, विदूषक का निषेध, विनयपत्रिका के पद से प्रारम्भ, अवध का स्थानीय रंग और परसियन दृश्यांकन एवं शैली से दूर सहजता और गंभीरता लिए आदर्शवादी शैली का प्रयोग उसके प्रमुख गुण हैं। रामनगर की रामलीला में राजसी ऐश्वर्य की भव्यता है, तो अयोध्या की रामलीला में धार्मिक भावना की दिव्यता है।

बुंदेलखण्ड की प्राचीन रामलीलाएँ

इस जनपद की चित्रकूट और कालिंजर की रामलीलाएँ सबसे पुरानी हैं। राउतों के लोकनाट्यों में इस जनपद की मूल प्रवृत्ति के अनुरूप वीर रस की प्रधानता थी। बुंदेलखण्ड चंदेली राज्य के बाद सदैव युद्धग्रस्त रहा है। घरेलू संघर्ष और बाहरी आक्रमणों ने भक्ति तक को वीररसात्मक बना दिया था। प्रमाण के लिए जहाँ इस अंचल का वीरकाव्य है, वहाँ भक्तिकाव्य भी।

कालिंजर ने 1023 ई. से लेकर 16वीं शती तक बाहरी आक्रमणों के घाव सहे हैं और चित्रकूट की कोल, भील और किरात तथा वन्य जातियों ने रामकाल से ही राक्षसी हमलों को झेला है। महाकवि तुलसी ने इसे महसूस किया था और सजग होकर अपनी ‘मानस’ में कामद गिरि के चित्रण से लेकर रावण के वध तक अंकित करने की योजना बनायी थी। चित्रकूट गिरि का व्यक्तित्व देखें-

चित्रकूट गिरि अचल अहेरी। चूक न घात मार मुठभेरी।।

यह निश्चित है कि तत्कालीन परिस्थितियों में ‘मानस’ के राम का वीरत्व यहीं से शुरू हुआ था और यह भी निश्चित है कि तुलसी-काल की परिस्थितियों के उपचार के लिए तुलसी की भक्ति यहीं वीररसात्मक हुई थी। ‘मानस’ की आत्मा में राम की वीरत्वव्यंजक मूर्ति ही रही है, जिसकी प्रेरणा कवि को इसी जनपद और खास तौर से चित्रकूट के परिवेश, उसकी संस्कृति और साहित्य से मिली थी।

यहाँ लोक द्वारा प्रचलित और लोक में प्रदर्शित रामकथा में कवि को अपनी योजना का सूत्र दिखा था और इसके प्रामाणिक साक्ष्य हैं राउतों द्वारा मंचित रामकथापरक लोकनाट्य एवं कालिंजर की रामलीला। लोकनाट्यों में राम और रावण की सेना में गाँव के पुरुष विभाजित होकर युद्धरत होते थे और पूरा वातावरण वीररस में डूबा रहता था।

नयी रामलीलाओं का उद्भव

नयी रामलीलाओं की प्रेरणा वाराणसी के रामनगर की रामलीला से मिली है। 1835 ई. में दतिया राज्य की रामलीला और 1865 ई. में जबलपुर के गोविन्दगंज की रामलीला उसी के अनुकरण पर आयोजित हुई थीं। दतिया राज्य की रामलीला के मंचन से प्रेरित होकर बुंदेलखण्ड की रियासतों-चरखारी, पन्ना, छतरपुर, ओरछा, बिजावर, मैहर आदि ने रामलीलाओं के आयोजन प्रारम्भ किये थे।

रियासतों के राजकोश से संचालित होने के कारण लीलाओं के स्वरूप राजसी थे और राजसी उपकरणों से सज्जित होने के कारण राजसी वैभव का प्रदर्शन होता था। उस समय रियासतों के बीच होड़ होती रहती थी, जिससे प्रतिद्वन्द्विता का वातावरण रहता था और जनता की प्रशंसा लूटने के लिए राजसी सजधज और अलंकरण का अधिक प्रचार था।

फिर भी उन रामलीलाओं की विशेषता थी उनका साहित्यिक जुड़ाव। भले ही उनका मूल आधार रामचरित्र  मानस के छंद थे, परन्तु केशवकृत रामचंद्रिका के संवादों, राधेश्याम रामायण की प्रासंगिक पंक्तियों और स्थानीय कवियों के सटीक छंदों के बिना कोई भी लीला मंचित न होती थी।

यहाँ तक कि कोई स्थानीय और विश्वस्त कवि रामलीला का लेखन करता है और उसमें अपने छंद एवं गीत सम्मिलित कर देता है। उदाहरण के लिए, अयोध्या के महात्मा ने ’मानस‘ के आधार पर बुंदेली गद्य और पद्य में मैहर की रामलीला के लिये पूरी पोथी (पाण्डुलिपि) स्वयं तैयार की थी।

लोकनाट्य का स्वरूप और परिवर्तित रंग

रासलीला की तरह रामलीला का मंच खुला चबूतरा, मंदिर का प्रांगण और गाँव की चैपाल होता है। उसमें एक ओर दैवी पात्र और दूसरी ओर सामने राक्षस पात्र रहते हैं। मंच की तीसरी ओर पुरुष वर्ग और चैथी ओर स्त्री वर्ग अपने आसन लाकर बैठता है। अब कहीं-कहीं इस लोकमंच के स्थान पर पर्सियन मंच के पर्दे, सज्जा एवं चमत्कारी उपकरण सम्मिलित हो गये हैं। साथ ही किसी-किसी नगर में अब रामलीला नाटक की तरह अभिनीत होने लगी है और इस कारण उसका मंच परिष्कृत हो गया है।

लोकनाट्य में पात्रों की वेशभूषा और सज्जा चरित के अनुरूप, किन्तु सहज ग्रामीण या देशी होती थी। रावण, मेघनाद, हनुमान, जामवंत, सुग्रीव आदि पात्रों के लिए मुखौटों का प्रयोग होता है और रामसेना के वानरादि लाल तथा राक्षसादि काली पोशाक धारण करते हैं। जो प्रतीकात्मक है।

पात्रों की सज्जा देशी उपकरणों-खड़िया, गेरू, चंदन, श्री, पाउडर या शंखजरात, भोड़र, चमकनी आदि से होती थी। विशेषता यह थी कि दर्शक उचित सामग्री के अभाव में भी पात्रों से जुड़ा रहता था, जबकि आज सामग्री की भरमार है और भव्य सज्जा के बावजूद वह पात्रों के प्रति मानसिक कटाव रखता है।

कथा का गायन समाजी किया करते थे और अधिकतर उसी परम्परा का निर्वाह हो रहा है, फिर भी कहीं-कहीं उन्हें मुक्त रखा गया है। पात्रों के संवाद ज्यादातर पद्यबद्ध और लयात्मक रहते हैं, पर गद्य का प्रयोग भी होता है। संगीत से जुड़ाव कम रहता है और अभिनय का तत्व प्रमुख स्थान पाता है। रामलीला पर्सियन नाट्यशैली से प्रभावित हुई, तभी उसमें गीत-नृत्य का समावेश हुआ।


ग्रामीण, नागर और कस्बाई स्वरूप

अब रामलीला का रंगरूप तीन तरह का हो गया है-ग्रामीण, नागर और कस्बाई। ग्रामीण रामलीला लोकनाट्य की जमीन को अच्छी तरह पकड़े हुए हैं, जिसमें आंचलिक रंग निखरा हुआ है। उसके पात्र जितने लोकसहज हैं। उतने ही उनके संवाद। उनके राम और उनका परिवेश जितना ’मानस‘ के राम से बँधा है, उतना ही लोक के राम की तरह स्वच्छन्द है।

गाँव का कवि भी उसमें भागीदार है और मसखरा भी। गीतों में बुंदेली गारियाँ तक गायी जाती हैं। रामविवाह के दिन विवाह का पूरा लोकोत्सव मनाने की परम्परा बन गयी है। ’धनुष-यज्ञ‘ की लीला में पेटू राजा की कल्पना स्थानीय है और उसकी यथार्थपरक उक्तियों में लोकजीवन की वास्तविकता बिम्बित होती है।

दूसरी है नागर रामलीला, जो नगर की नाट्य-चेतना से सम्बद्ध रही है और जिसमें नागर लोकरुचि के अनुसार परिवर्तन हुए हैं। कहीं पर्सियन नाट्य-शैली का प्रभाव है, तो कहीं फिल्मी दृश्यप्रधान और संगीतात्मक शैली का। बड़े नगरों में सचेत कलाकारों के द्वारा काफी बदलाव किये गये है और उसके कलात्मक या नाटकीय स्वरूप को ही प्रदर्शन के लिए स्थिर किया गया है। दूसरी तरफ, लोकचेतना के नये प्रत्यावर्तन से संप्रेरित होकर रामलीला को विशुद्ध लोकनाट्य के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए नये प्रयोग हो रहे हैं।

तीसरी है कस्बाई रामलीला, जिसमें उक्त दोनों नाट्यरूपों का समन्वय मिलता है। उसमें चमत्कारी दृश्य-योजना से दर्शकों को बाँधने का प्रयत्न रहता है, जैसे तार द्वारा हनुमान जी का आकाश में उड़ना या मृत मेघनाद के हाथ का सती सुलोचना के पास गिरकर पत्र लिखना। कुछ ऐसे प्रसंग परम्परित कथा में जोड़ना, जो दर्शकों में उत्सुकता पैदा करें, कुछ आंचलिक स्वाँगों को बीच में गूँथना, जो मनोविनोद से प्रफुल्लित करें, और फिल्मी धुनों में भक्तिपरक या प्रसंगोचित गीतों का गायन करवाना, जो युवावर्ग को आकर्षित करें।

ये लीला-नाट्य के कुछ नये पहलू हैं। साज-सज्जा, पात्रों का श्रृंगार, पर्दों की विविधता, रंगीन प्रकाश आदि अभिनय की लापरवाही ढँकने के लिए प्रभावी माध्यम बन गये हैं। ग्रामीण और कस्बायी रामलीलाओं में गंगा-पार उतरना, केवट-लीला, भरत-मिलाप आदि कुछ प्रसंग मंच से बाहर नदी या सरोवर-तट, किसी विशिष्ट स्थल आदि जैसे प्राकृतिक परिवेश में खेले जाते हैं, जिनसे लोकहृदय स्वाभाविकता के रंग से रंजित हो जाता है।

दूसरी विशेषता यह है कि नारी पात्रों का अभिनय सुंदर किशोर इतनी सफलतापूर्वक करते हैं कि उनके पाठ से उन्हें पुरुष कहना कठिन है। तीसरे, रामलीला में रामचरित के अनुरूप मर्यादोचित गम्भीरता आज भी पोषित है। चैथे, ग्रामीण रामलीला में पात्रों की वेशभूषा सहज उपलब्ध वस्त्रों से तथा श्रृंगार स्थानीय सामग्री-रोली,मुर्दाशंख, खड़िया, गेरू, चंदन आदि से स्वाभाविक प्रतीत होता है। कस्बों और नगरों में प्रसाधन के उपकरण काफी बढ़ गये हैं और उनसे कृत्रिमता ही बढ़ी है।

रामलीला का भविष्य: सम्भावनाएँ

आज रामलीला के भविष्य के संबंध में विचार करना इसलिए जरूरी है कि नगरों में टी.वी. की चकाचैंध में परम्परा-पोषित रामलीला आकर्षण का केन्द्र नहीं रह गयी है। अब वह धार्मिक अनुष्ठान और श्रद्धा की भावना से परे ऊपरी चमक-दमक और मनोरंजन का माध्यम बन गयी है।

प्रश्न यह है कि इतने अधिक जुड़ाव और भावात्मक एकता के लोकनाट्य को क्या यूँ ही छोड़ दिया जाय। यह लोकनाट्य जो अंग्रेजों की दासता के समय धर्म की ओट में राष्ट्रीय चेतना के जागरण का मंच बन गया था और जिसने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना, भारत माता की दासता के स्वाँगों को अपनी कथा में गूँथकर लोक को जाग्रत करने का महत्कार्य किया था। उसे इस मूल्यहीनता के समय उपयोगी न समझा जाय?

चिन्ता का विषय यह भी है कि सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक यह लोकनाट्य अब बनावटी बुनावट के फंदों में फँसता जा रहा है और लोकनाट्य में नवीन प्रयोगों की पक्षधरता के हाथ में वह न तो लोकनाट्य रह गया है और न नाटक ही। लोकनाट्य का असली स्वरूप आहत हुआ है।

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Source: Bundeli Jhalak 

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