बुन्देलखण्ड की लोक गाथा धाँदू भगत अनुवाद कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है कथा के अनुसार ढाँदू भगत माता हिंगलाज की अद्भुत भक्ति की गाथा है । भोले भाले भक्त ढाँदू के निश्छल प्रेम और समर्पण का सुंदर चित्रण किया गया है । वो किन विषम परस्थियों मे माता हिंगलाज के दर्शन करने जाता है और अपना सिर भेंट करता है । माता हिंगलाज प्रसन्न हो उसे फिर से जीवित कर देती है। इस गाथा में भोले भाले ग्रामीण लोक मानस के वहकती-भाव, त्याग और समर्पण का ताना-बाना है ।
बुन्देलखण्ड की लोक गाथा धाँदू भगत
बगीचे में लगे तुलसी के पौधे इतने कोमल होते हैं कि वे पानी सींचने पर भी मुरझा रहे हैं। लेकिन जो पूर्ण रूप से ईश्वर पर आश्रित हों, वे पहाड़ पर भी हरे-भरे रहते हैं। दुर्गा देवी स्नान करने जा रही हैं, वे अपने एक हाथ में कलश तथा एक में वस्त्र लिए हुए चली आ रही हैं। पहले उन्होंने सारी नगरी में से अपनी सखियों सहेलियों को स्नान हेतु आमंत्रित किया, तत्पश्चात् वे सबके साथ गंगाजी के घाट पर स्नान हेतु जाती हैं।
वे चलते-चलते सात समुद्र के घाट पर पहुँच गयीं। उन्होंने अपनी ओढ़नी निकालकर एक स्थान पर रख दी तथा समुद्र की लहरों में बैठकर स्नान करने लगीं । समुद्र की लहरें तो घटती-बढ़ती रहती हैं । स्नान के समय एक लहर इतनी बढ़ गयी कि देवीजी का चीर अपने साथ बहाकर ले गयी । जब उन्होंने यह जाना तो वे कहने लगीं कि समुद्र तो मेरा भाई है, वह मुझसे क्यों मजाक करेगा? अब स्नान के उपरान्त वे चिन्तित थीं कि अब क्या पहनकर घर जाऊँगी।
वहीं गंगाजी के पास में एक मणिधारी सर्प रहता था, उस सर्प की काँचुली थी तो देवी ने काँचुली पहनकर घर जाने का सोचा। देवी ने अपने भ्राता लँगड़े से कहा कि जाकर सर्प की काँचुली ले आओ। जैसे ही देवी ने वह काँचुली पहनने को छुई कि वह गुलाबी रंग के वस्त्र में परिणत हो गयी । देवी अपने मन्दिर में वापिस आ गयीं । देवी अपने मठ में आयीं तो देखा कि एक स्त्री मठ में रुदन कर रही है, उसका रुदन इतना ज़्यादा था कि उसकी साड़ी आँसुओं से लथपथ हो गयी थी।
देवी ने स्त्री से ‘पूछा कि- क्या तुझे तेरे घर सास या ननद ने कष्ट पहुँचाया, स्त्री बोली- न हमें किसी ने दुख पहुँचाया है और न ही हम कुल के नीचे हैं, मेरे अपने पति ही मुझे बाँझ कहें तो यह असहनीय दुःख है, इसीलिए मैं आपके पास आयी हूँ। देवी ने वरदान दिया, कहा कि- तू अपने घर जा, तेरे बालक होगा। स्त्री बोली कि इस तरह का दान मैं नहीं लूँगी, यदि आप उसे अपनाकर दें तब ही मैं आपका दान स्वीकार करूँगी।
देवी ने पूछा कि – अगर तेरे बालक हुआ, तो मुझे क्या भेंट चढ़ायेगी? स्त्री ने कहा कि- यदि मेरे बालक हुआ तो वह आपका सेवक होगा। देवी ने कहा कि- यहाँ से चम्पाकी कली लेते जाना, दूसरी बेला की कली ले जाना, तू निश्चिन्त होकर घर जा तेरे बालक होगा।
स्त्री के गर्भ का पहला महीना लगा तो मन में घबराहट होने लगी, दूसरे माह में आलस्य आने लगा, तीसरे महीने में बेर खाने का मन होने लगा, चौथे मास में खट्टे आम खाने की इच्छा हो रही थी, पाँचवें में नीबू, छठवें में केला, सातवें में पेड़ा खाने का मन हुआ, आठवें मास में कपूर तथा नौवें माह बालक का जन्म हो गया, अर्थात् धाँदू का जन्म हो गया।
धाँदू के जन्मते ही सूखी दूब हरियाने लग गयी। बालक का नरा कौन-से छुरे से छीनें? कौन-से खप्पर में स्नान करायें? सोने के छुरे से नरा छीने तथा चाँदी के खप्पर में स्नान करायें। कौन-से सूप में पौढ़ाया गया तथा क्या अक्षत डाले? हरे बाँस से बने सूप में बालक को लिटाया तथा मोतियों के अक्षत डाले गये । सुरहिन गाय का गोबर मँगवाकर ढिग लगाकर सारा भवन लिपवाया गया, फिर मोतियों का चौक पुरवाकर उस पर कलश स्थापित करवाया गया।
नगर में सबको बुलवाने हेतु नाइन को बुलवाया। सारे नगर की सभी जाति वाली स्त्रियाँ आयीं, सबने बच्चे की खुशी में गीत गाये । जाते में उन्हें उपहार स्वरूप मीठा आदि दिया गया। काशी से पण्डित बुलवाये गये, उनसे बच्चे का भविष्य पूछा गया। पण्डित ने बताया कि बालक शुभ घड़ी में जन्मा है, ये जब बारह वर्ष का होगा, तब देवीजी के जवारों में जायेगा।
बालक धीरे-धीरे बड़ा होने लगा, लेकिन देवी के वरदान द्वारा बालक मिला था इसलिए आम बालक से अलग था । उसका ध्यान पूजा – भक्ति में ज़्यादा लगता था।
कार्तिक मास तो धर्म का महीना कहलाता है- दीपावली, दूज, प्रतिपदा, एकादशी सभी प्रमुख त्यौहार इस मास में होते हैं। दीपावली के दूसरे दिन मौन चराने वाला व्रत होता है। इस समय तो घर की चिन्ता ही नहीं रहती । अगहन मास में तो ठंड अधिक होती है। पूस मास में तो पूजा-भक्ति नहीं होती । माघ तो बड़ा महत्त्व का महीना है।
फाल्गुन तो रंग गुलाल का महीना है। चैत्र में नवरात्रि का पर्व होता है । क्वाँरी पूजन का महत्त्व है, इस समय क्वाँरी कन्याओं को घर-घर में आमंत्रित किया जाता है । वैशाख में कोयल बोलने लग जाती है । ज्येष्ठ तथा आषाढ़ तो घर की छावन करवाते में बीता। श्रावण-भादों तो पानी की झड़ी वाले महीने होते हैं । भाद्रपक्ष के बाद जैसे ही आश्विन लगा, तो भक्त धाँदू अपने धनुष-बाण तैयार करने लगे । इस समय वे बारह वर्ष के हो गये थे।
अब उन्हें जवारों को जाना था। चहुँ दिशाओं से सारे भक्तगण पण्डा आदि आ गये, लेकिन धाँदू भक्त नहीं आये । देवीजी ने अपने भाई लँगड़े से कहा कि- जाकर देखो तो कि धाँदू अभी तक क्यों नहीं आये? उसे तो आना ही था । लँगड़े ने पूछा कि – धाँदू भक्त कहाँ रहते हैं? उन्हें कहाँ ले आऊँ? खजरीगढ़ में भक्त धाँदू रहते हैं, उन्हें हिंगलाज आना है। लँगड़े ने कहा- न तो मेरे पाँव की पावड़ी है और न सिर में बाँधने की पाग, न आने-जाने को घोड़ा है। रास्ते खर्च के लिए रुपया भी तो नहीं है, ढाल-तलवार भी चाहिए जाने के लिए।
देवी ने कहा कि मैं सारी आवश्यक चीज़ें प्रदान करूँगी । लँगड़े धाँदू को लेने चल दिये । वे अपने हाथ में चन्दन की छड़ी लिये हैं तथा धाँदू को ढूँढ़ रहे हैं, किसी ने बताया कि वह बड़ा मकान जिसमें लाल रंग के किवाड़ हैं, झण्डे फहरा रहे हैं, वहीं पर धाँदू का निवास है । वहाँ से लँगड़े ने बीन बजाना शुरू कर दिया- अरे भक्त! धाँदू तुम सोते हो कि जागते हो, तुम्हें माता ने बुलाया है। कहाँ पर माँ का निवास है? कहाँ पर उन्होंने बुलाया है? हिंगलाज में जालपा देवी हैं, वहीं पर बुलाया है।
धाँदू की पत्नी बड़ी चतुर है। उन्होंने एक वर्ष तो बड़ी चतुराई से व्यतीत कर दिया, कोई न कोई बहाना करते हुए- कार्तिक धर्म का माह है, अगहन में गोपी ग्वाल खेलते हैं, पूस में बालियाँ निकलती हैं, माघ में पूजन होती है, फाल्गुन रंग का महीना है, चैत्र में केतकी फूलती है, वैशाख में आम के फल लगते हैं, जिन्हें कोयल खाती है । ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भादों बारिस में गये, क्वाँर आने पर धाँदू ने अपनी ध्वजा निकाली।
पहली बार धाँदू ने माँ का जय जयकारा लगाया । उन्हें जाने के लिए उनके माता-पिता मना करते हैं, समझाते हैं कि- बेटा ! कठिन मार्ग है, न जाओ । धाँदू नहीं मानते। धाँदू तो कहते हैं कि मेरी तो भूख-प्यास, नींद ही चली गयी। घर के लोगों ने कहा कि- कहाँ पर तुम रहोगे, किसके साथ में रहोगे ? धाँदू ने कहा कि- देवी के देवालय में मैं रहूँगा, मेरे साथ में लँगड़े रहेंगे। देवी जवारों को जाने के लिए लाखों भक्तगण तैयार हुए हैं।
अनगिनत पण्डा हैं । वाद्य बज रहे हैं, देवी के जस गाये जा रहे हैं, चारों तरफ धर्ममय वातावरण दिखाई दे रहा है- अरे धाँदू! तुम जा रहे हो तो अपने पिता-माता, भाई- बहन, सखा – सहेली, ग्रामीण आदि सबसे भेंट कर लो। धाँदू जिनसे मिलने गये तो उनके साथ वे ही जाने को तैयार हो गये। जो किसान हल चला रहे थे वे साथ हो गये, जो गायें चराते थे वे चरवाहे, कुएँ पर पानी भरती पनहारी, यहाँ तक कि कजली वन की मोर उनके साथ हो ली।
लाल रंग के डोल सजे हैं, उन पर पीले रंग के झण्डे । पहले पड़ाव पर सब एक बावड़ी पर एकत्रित हुए। आगे चलने पर रास्ते में सतलज नदी आड़े आ गई। कैसे यह मेला उस पार जायेगा? सारा दल टीलों और कछारों पर पड़ाव डाले है। सब अपना-अपना चढ़ावा चढ़ाने लगे । कोई नारियल चढ़ा रहा है तो कोई ध्वजा चढ़ा रहा है। कोई लौंग चढ़ा रहे हैं। राजा चन्द्रसा ने हीरा भेंट में चढ़ाया। वे हीरा – मोती चन्दन का झाड़ बन गये।
इतना बड़ा लाव-लश्कर देखकर वहाँ के राजा अकबर अपने सभासदों से बोले कि यह इतना बड़ा जमावड़ा कहाँ से आ गया ? कहाँ जा रहा है? किसी ने कहा कि- खजरीगढ़ के भक्त धाँदू अपने साथियों के साथ हिंगलाज को देवी दर्शन हेतु जा रहे हैं। राजा ने कहा कि सबको बन्द करवा दो, हाथों में हथकड़ी, पाँव में बेड़ी तथा काल कोठरी में बन्द करवा दो। इस तरह का अन्याय देखकर धाँदू ने माँ का स्मरण किया तो वहाँ पर एक चमत्कार हो गया, देवी की कृपा से सबके हाथों की हथकड़ी, पाँव की बेड़ी अपने आप खुल गयी, कारागार के दरवाजे खुल गये ।
धाँदू के साथ सबने हिंगलाज वाली माँ की जय बोली, सब बाहर निकल आये। तीसरी बार धाँदू ने जब जय-जयकारा लगाया तो सब सतलज पर एकत्रित हुए । नदी की तेज जलधारा प्रवाहित हो रही है, जलस्तर बहुत बढ़ा हुआ है। सबके समक्ष नयी मुसीबत आ गयी । धाँदू ने हिंगलाज माँ का जयकारा लगाया पानी घुटनों तक आ गया, सब नदी पर उतरे । पाँचवी बार देवी का पूजन हुआ तो सब देवीजी के मढ़ तक पहुँच गये। समस्त भक्तगण वहीं पर ठहर गये । धाँदू देवीजी के मढ़ के बीच में ठहरे। सब देवीजी को चढ़ावा चढ़ा रहे हैं ।
कोई नारियल चढ़ाते हैं,कोई फूलों के हार। सब अपनी सामर्थ्य अनुसार चढ़ावा चढ़ाते हैं । धाँदू बड़े भोले-भाले थे। वे क्या चढ़ायें, यह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था । माँ देवी जालपा अपने प्रिय भक्त धाँदू से हँसकर पूछती हैं कि- वत्स ! सब तो कोई न कोई भेंट चढ़ा रहे हैं, तुम क्या चढ़ाते हो? धाँदू ने तो अपनी म्यान से तलवार निकाली और अपना शीश काटकर देवी के समक्ष रख दिया- हे माँ! मेरी भेंट स्वीकारें।
सारे भक्तगण तो अपने-अपने घरों को लौट आये, लेकिन धाँदू का तो सिर और धड़ देवीजी के मढ़ में पड़ा कुम्हला रहा है। यहाँ धाँदू की पत्नी सबके घर जाकर पूछती है कि- मेरे पति कहाँ रह गये? वे क्यों नहीं आये? भक्तों से अपने पति की जानकारी मिलने पर धाँदू की पत्नी देवीजी के दरबार में उपस्थित होती है । समस्त पूजन की सामग्री ले जाकर रास्ते-रास्ते देवी को होम-धूप चढ़ातीं, पूजन करती जा रही है।
देवीजी के समक्ष जब वह पहुँचीं तो माँ ने कहा कि- अरी दुल्हन! तुम तो बड़े दिनों में आई हो? तुम भी मुझे कुछ भेंट लाई होगी? दुल्हन कहा कि- हे माँ! पहली भेंट तो आपने मेरे पति की ले ली, अब दूसरी भेंट मैं अपनी लेकर आई हूँ। सुनकर देवीजी ने कहा कि- बेटी ! कोई चिन्ता न करो, मैं तुम्हारा राज्य स्थिर कर दूँगी ।
आठ दिन तथा नौ रातें हो गई हैं, तुम्हारे पति का शव कुम्हला गया है, तुम अपने पति के धड़ से सिर को मिला दो ऊपर चादर ढँक हो । धाँदू की पत्नी ने वैसा ही किया। देवी ने अमृत छिड़क कर धाँदू को जीवित कर दिया, तत्पश्चात् दोनों ने देवीजी का विधिवत् पूजन किया- हे माँ ! तेरी जय हो-जय हो-जय हो। पंच भगत देवीजी के जस गाते हैं । हे माँ! हम सब की रक्षा करो! हमें तेरा ही भरोसा है, तू ही सबकी रक्षक है।
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