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कवि बोधा का जन्म परिचय

कवि बोधा का जन्म राजापुर जिला बाँदा मे हुआ था इनका मूल नाम बुद्धिसेन था। यह सरयू पारी ब्राह्मण थे। बोधा का जन्म संवत् 1804 (1747ई. ) मे हुआ। इनका काव्य काल संवत्1830 -1860 (1773 ई. से 1803ई.) माना जाता है। सही मायने में बोधा फक्कड़ कवि थे । कविता इन के लिए मन की भावनाओं को प्रकट करने का माध्यम अतः कवि मन की मौज में कविता करता गया। 

                           

 प्रखर बुद्धि के स्वामी होने के फलस्वरूप ब्रजभाषा के अतिरिक्त संस्कृत एवं फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। बचपन से ही उन्हें देश-देशान्तर भ्रमण में रुचि थी । इस क्रम में उन्होंने अनेक स्थानों का भ्रमण किया । इनके कुछ घनिष्ठ संबंधी बुलेदखंड में रहते थे । अतः बोधा का प्रवेश भी राजदरबार में हुआ ।

महाराज खेतसिंह उत्तम गुणों के पारखी थे, उन्होंने बोधा में छिपी कवित्वशक्ति को परख लिया और इन्हें अपना राजकवि बना दिया । महाराज इनके ऊपर अत्यन्त मेहरबान थे । बोधा को भी बुन्देलखण्ड भा गया, क्योंकि इससे पहले वह अनेक स्थानों का भ्रमण कर चुके थे, किन्तु उन्हें राजा खेतसिंह जैसा कोई भी नजर नहीं आया था :

बढ़ि दाता बड़कुल सबै देखे नृपति अनेक ।
त्याग पाय त्यागे तिन्है चित में चुभे न एक ॥

राजदरबार में “सुभान” नामक एक मुसलमान नर्तकी वारांगना रहती थी । बोधा उसके प्रणयपाश में बंध गये । उन्हें समाज की चिन्ता न थी । उनका विचार था कि प्रेम में लोक-लाज इत्यादि की चिन्ता छोड़ देनी चाहिए –

“लोक की लाज औ सोच अलोक को, वारिए प्रीति के ऊपर दोऊ” ।,

धीरे-धीरे यह बात महाराज के कानों तक पहुंची । महाराज को दुःख हुआ और उन्हें बोधा पर क्रोध आया। उन्होंने बोधा को समझाया किन्तु नहीं मानने पर कुपित होकर उन्हें एक वर्ष के देश-निकाले का हुक्म दे दिया। कहां राजदरबार का ऐश्वर्य और कहां देश-निकाले का हुक्म । परन्तु बोधा अलमस्त व्यक्तित्व के स्वामी थे । 

पक्षिन को बिरछा हैं घने और घने बिरछान को पक्षी हैं चाहक
मोरन को हैं पहार घने और पहारन मोर रहैं मिलि बाहक
बोधा महीपन को मुकता औ घने मुकतान को राइ बिसाहक
जो धन है तो गुनी बहुतै अरु जो गुन है तो अनेक हैं गाहक

फिर अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर सुभान के घर जा पहुंचे। सुभान से उन्होंने सारी बात कही और उससे अपने साथ चलने को कहा। सुभान बोधा से प्रेम तो करती थी, किंतु उस प्रेम के लिए वह राजसी ठाठ एवं महाराज की कृपादृष्टि तजने को तैयार न थी। उसने बड़ी चतुराई से बोया से कहा:

‘आप कवि हैं, आपका सम्मान तो कहीं भी होगा। राजा ने तो आपको देश निकाले की आज्ञा दी है। वे मुझसे तो अप्रसन्न नहीं हैं, अतः राज्याज्ञा के विरुद्ध आपके साथ जाना उचित प्रतीत नहीं होता । एक वर्ष का समय तो पलक झपकते ही बीत जायेगा । उसके बाद तो आप पुनः आ ही जायेंगे। आप में प्रतिभा है, इस बीच आप माधवानल की कथा रचकर राजा को प्रसन्न कर सकते हैं।”

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सुभान की ऐसी निष्ठुरता देखकर पहले तो बोधा बड़े खित्र हुए लेकिन फिर अपने मन को समझाकर अकेले ही चल पड़े । सुभान के वियोग में जंगलों, पहाड़ों और अनेक स्थानों पर भटकते रहे । इसी अवधि में उन्होंने विरहवारीश की रचना की । देश निकाले का दण्ड पाने के बाद भी इनकी निष्ठा राजा खेतसिंह के प्रति पूर्ववत् बनी रही ।

बुन्देलखण्ड बराबर उन्हें अपनी ओर खींचता रहा । नियत समय व्यतीत हो जाने पर वे पुनः पन्ना के राजदरबार में हाजिर हुए। जिस समय बोधा दरबार में पहुंचे, सुभान भी वहां उपस्थित थी । एक वर्ष के अंतराल में महाराज पुरानी कटुता को भूल चुके थे । उन्होंने बोधा से उनका कुशल- -क्षेम पूछा। अनुकूल अवसर पाकर कवि बोधा ने विरहवारीश का पाठ आरंभ किया। सारी सभा मंत्रमुग्ध हो गई । भावातिरेक के कारण लोगों की आंखों से आंसू बहने लगे ।

कुछ समय पश्चात महाराज ने कहा : “अब बहुत हुआ, आपने सभी को प्रसन्न कर दिया, अब जो मांग सकें, मांगिए ।” बोधा मौन रहे । जब महाराज ने बार-बार यह बात कही तो महाराज की दृढ़ता को भांपकर बोधा ने कहा : “सुभान अल्लाह” । शील-सागर परम प्रतिज्ञ महाराज ने उनकी मांग स्वीकार कर सुभान को उनके साथ रहने की आज्ञा दे दी । तब से अनेक स्वदेशीय राजधानियों में सुभान के साथ घूमते हुए उन्होने अपना जीवन बिताया एवं अन्त में पन्ना  आकर स्वर्गवासी हुए।

Soure: Bundeli Jhalak 


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