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महाकवि ‘ईसुरी’ की कुछ पंक्तिया

महाकवि ‘ईसुरी’ का नाम सुनते ही हमारे मन मस्तिष्क में उनकी फागों की विभिन्न छबियाँ मंडराने लगती हैं । लेकिन ‘फाग’ शब्द आते ही हमें विभिन्न रंगों में रंगे होली के हुड़दंगों की भी याद नहीं भूलती । जिनमें हँसी, ठिठोली, व्यंग्य, विनोद, उपालंभ की बाढ़ सी आ जाती हैं। व्यक्ति अपने आपसी बैरभाव को भूलकर आपस में मिलजुलकर आनंदित होता है ।ईसुरी कहते हैं  Angar Baith Lev Kachhu Kane ? वो अपनी फागों के माध्यम से कुछ न कुछ कह ही रहे हैं ।

                                             

इसी अवसर पर गाये जाने वाले गीत फाग या फागें कहलाती हैं अर्थात् फाग वसंत का लोकगीत है और गाँव की बासन्ती मानसिकता उसकी आत्मा है । ईसुरी की फागों में जीवन के विविध रंग भरे हुए हैं । चाहे वे सामाजिक संस्कार हों प्रकृति चित्रण, आध्यात्मिक दर्शन हो या भक्ति, भोगविलास हो या देश-प्रेम, लौकिक प्रेम हो या अलौकिक प्रेम, सभी के चित्र इस चितेरे की तूलिका से चित्रित हुए हैं ।

आज प्रगति के युग में जब विज्ञान और भौतिकता अपने पूरे जोर पर है और कविता बौद्धिकता के सहारे नयी-नयी पगडंडियाँ खोज रही हैं, ऐसे में ईसुरी की पुरानी भावुकता भरी चौकड़ियों का अपना अलग महत्व है । बुन्देलखण्ड के गाँव-गाँव में ईसुरी की फागों की लोकप्रियता यह सिद्ध करती है कि उनमें कुछ न कुछ तो होता है, जो आज भी उन्हें अमरत्व दे रहा है । आखिर वह कुछ क्या है ? इसको समझने के लिये उनके काव्य में निहित विविध भावों को देखना होगा, तभी उनकी फागों की सार्थकता को समझ सकते हैं ।

प्रधानतः ईसुरी श्रृँगार के कवि हैं । उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का केन्द्र ‘रजऊ’ को बनाया है। उनकी यह देहधारी प्रेमिका उनकी लौकिक प्रेमिका है या उनकी ही पत्नी राजा बेटी ही है, या अलौकिक कल्पित प्रेमिका का प्रतीक । ईसुरी ‘प्रेम के मांसल’ सौन्दर्य पर आसक्त थे । इससे स्पष्ट होता है कि उनके मन में ‘प्रेम’ का बीजारोपण किसी सुन्दरदेह ने ही किया था । वे रजऊ के अंग-अंग की आभा का वर्णन करते हुए कहते हैं –

नग-नग बने रजऊ के नोनें, ऐसे कीके होने ।
कान-नाम औ भोंय चिबुक लग, अखियां करती टोने ।।
ग्रीवा, जुबन, पेट कर जांगे, सब ही बहुत सलोने ।
ईसूरी दूजी रची न विधना, छानौ त्रिभुवन कोने ।।

कवि नायिका के सौन्दर्य वर्णन पर इतना अधिक रीझा हुआ है कि उसकी वाणी भी मौन होती हुई दिखाई देती है । यथा-
हम पै एक मुख जात न बरनी, रजऊ तुमाई करनी ।
जा ठांड़ी हो जाती जाके, दिपत लगत वा धरनी ।।

प्रेम में नेत्रों का विशेष महत्व होता है, क्योंकि सारा कार्य व्यापार इन्हीं के द्वारा होता है । ईसुरी ने इन्हीं नेत्रों के लिये विभिन्न उपमानों का प्रयोग किया है –
अखियां पिस्तौले सी भरकें, मारत जात समर कें ।
ऐसे अलबेली के नैंना, मुख से कात बनैना ।

किन्तु न जाने कैसा आनन्द है इस घायल होने में भी जो प्रेमी बार-बार नैन वाणी से बेधे जाने के बाद भी प्रिय की उसी मुस्कान और नैन-वाणों की मनुहार करता है –
हमखां बिसरत नहीं बिसारी, हेरन हंसन तुम्हारी ।
ईसुर कात हमारी कोदाँ, तनक हेर लेव प्यारी ।।

प्रेमी जब अपनी प्रिया को किसी और से बातें करता देख लेता है, तब उसकी पीड़ा उसी के शब्दों में –
हमसे काए छरकतीं रातीं, औरन सो बतयाती ।
हम तो कएँ प्रेम की बातें, अपन जहर सौं खाती ।।

जब यह प्रेम अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है, तो वह समाज की हर दीवाल तोड़ डालना चाहता है –
करलो प्रीत खुलासा गोरी, जा मंसा है मोरी ।
ऐसी करलो ठोक तारियाँ, फिर ना टूटैं डोरी ।।

विरह में ही प्रेम की वास्तविकता प्रकट होती है इसलिए कहा जाता है कि सच्चा प्रेम ही विभिन्न ठोकरों को सहन कर पाता है क्षणिक प्रेम जो सिर्फ रूप लावण्य के कारण होता है वह एक ठोकर खाकर ही समय के प्रवाह में बह जाता है । ईसुरी कहते हैं –
जब से रजऊ से नैन लगाये, बड़े कसाले खायें ।

कवि इन सभी झंझटों की जड़ नेत्रों को ही मानते हैं । आँखें जब किसी से लग जाती हैं,तो क्या स्थिति होती है इन्हीं की नजर में –
अखियाँ जब काऊ से लगतीं, सब-सब रातन जगतीं ।
बिन देखे से दरद दिमानी, पके खता सी दगतीं ।।

विरह में मन इतना अधिक छटपटाता है कि प्रेमी सोचता है कि इस स्थिति से अच्छा है कि मर जाऊँ । इसी कसक का एक चित्र देखिये –
हमखां रजऊ की बिछरन व्यापी, कहत नहीं जी पापी ।

इस प्रकार देखते हैं कि ईसुरी ने प्रेम की प्रायः सभी अनुभूतियों का चित्रण बड़े ही सहज और स्वाभाविक रूप में किया है, जो अपने आपमें अद्वितीय है । ईसुरी का समूचा फाग साहित्य एक नयनाभिराम मनमोहक चित्र है जिसमें सहज रूप से लोकरुचि के अनुरूप विविध रंग उभरे हैं । यह ऐसा चित्र है जिसका बहिरंग और अतरंग लोक संस्कृति से अनुरंजित है । ईसुरी के काव्य में सामाजिक सम्बन्धों का विशद चित्रण है ।

बुन्देलखण्ड में बाल विवाह की प्रथा खूब रही है । कुछ जातियों में तो विवाह सम्बन्ध पुत्र-पुत्रियों के जन्म से पूर्व ही तय हो जाते हैं । जिसका उल्लेख ईसुरी ने भी अपने फागों में किया है । यहाँ पर एक वधू अपने पति के बारे में अपनी सखी से कहती है –
का सुख भओ सासरे मइयां, हमें गये को गुइयां ।
परबू करे दूध पीबै कों, सास के सगे सइयां ।।
दिन भर बनी रात संकीरन, चढ़ै ससुर की कैयां ।
भरभर दैबे कहैं ईसुरी देखत हमें तरइयां ।।

बुन्देली नायिकाओं में गुदना गुदवाने की परम्परा है । गुदना गुदवाने का उल्लेख करते हुए ईसुरी कहते हैं –
गुदना लगत गाल पै प्यारौ, हमखों रजऊ तुमारौ ।

जन्म, विवाह और मृत्यु जीवन के शाश्वत परिवर्तन हैं और इन संस्कारों का वर्णन भी ईसुरी के काव्य में मिलता है।
इन दिन होत सबई की गौनों, होनौ और अनहोनौ ।
जाने परत सासरे सांसऊ, बुरऔ लगै चाय नौनों ।।

देवी-देवता, पीर-पैगम्बर, टोना-टोटका, झाड़-फूँक आदि पर विश्वास बुन्देलखण्ड में बहुत अधिक प्रचलित है । नजर लग जाने पर गुनियां-तांत्रिक अपनी तंत्र-मंत्र विद्या से नजर को उतारते हैं । राई, नौंन उतारने की भी प्रथा है । इसी का उल्लेख करते हुए ईसुरी कहते हैं –
नौंने नई नजर के मारें, राती रजऊ हमारें,
विधना-उदना अलफ बचावैं, जिदना पटियां पारें ।
ईसुर रोजऊ रजऊ के ऊपर, राई नौन उतारैं ।।

इसके अतिरिक्त भाग्य और कर्म पर विश्वास भी ईसुरी की फागों में व्यक्त हुए हैं। सामाजिक बुराईयों पर दृष्टिपात, बौद्धिक उन्नति का परिचायक है । इस प्रकार की फागें नीति पूर्ण और शिक्षाप्रद हैं ।
गांजों पियो न प्रीतम प्यारे, जर जैं कमल तुमारे ।
जारत काम बिगारत सूरत, सूखत रक्तिन मारे ।।

ईसुरी मानवतावादी दृष्टिकोण के पोषक थे । प्रत्येक मनुष्य के सुख-दुख से वे प्रभावित होते थे । इन्हें इस बात से अत्यन्त दुःख होता था कि व्यक्ति परस्पर लड़ाई झगड़ा करते हैं इस आपसी संघर्ष को निपटाने के लिए उनकी यह पंक्ति सूत्र रूप में आज भी लाभदायक सिद्ध हो रही है ।
तन-तन दोऊ जने गम खाँयें, करो फैसला चाये ।

ईसुरी अपनी मातृभूमि के अनन्य भक्त थे, जिसके समक्ष धर्म ग्रन्थों में वर्णित गंगा की पवित्रता भी तुच्छ है । ईसुरी की इच्छा थी कि वे भले ही गंगा तट पर मृत्यु को प्राप्त हों, परन्तु उनका अंतिम संस्कार अपनी कर्मभूमि बघौरा में ही हो । इसलिए उन्होंने स्पष्ट कहा है।
यारो इतनो जस लै लीजो, चिता अन्त न दीजौ ।
गंगा जू लौ मरै ईसुरी, दाग बगौरा दीजौ ।।

ईसुरी ने केवल जीवन के आदर्श का ही नहीं, यथार्थ का भी चित्रण किया है । ऋतुओं का परिवर्तन जहाँ समृद्ध-जनों में मस्ती और उल्लास भर देता है, वहीं निर्धनों को प्रतिपल जीवन निर्वाह की चिन्ता में जलाता रहता है ।
फांके परत दिना दो-दो के, परचत नईयां चूले ।
मरे जात भूंकन के मारे, अंदरा कनवा लूले ।।

बुन्देलखण्ड की अधिकांश भूमि पथरीली है, कृषि योग्य कम है इसलिए यहाँ का किसान और श्रमिक प्रायः महुआ, बेर, अचार आदि पर गुजारा करता है । जो छोटी-मोटी खेती बाड़ी होती है, वह भी किसी साल प्रकृति का कोपभाजन बन जाती है । ईसुरी ने लोक जीवन की इस कठिन पीड़ा का बड़ा ही मार्मिक और संवेदनशील चित्रण किया है ।
आंसों दे गओ साल करोंटा, करौ खीब सब खौटा ।
कहत ईसुरी बांदे रइओ, जबर गांठ को घौटा ।।

महाकवि ईसुरी  संकट के समय भी जनमानस  से साहस बनाये रखने की अपील करते  है। महुआ बुन्देलखण्ड का मेवा है । उसकी उपयोगिता और विनाश को देखते हुए वे कहते हैं –
इनपे लगे कुलरियां घालन, महुआ मानुस पालन ।
इनें काटबो ना चाइयत तो, काट देत जा कालन ।।

ईसुरी को ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास था । वे राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा एवं गंगा में अखण्ड विश्वास रखते हैं । मानस की प्रशंसा से ओत-प्रोत फाग दृष्टव्य है –
रामें लये रागनी जीकी, लगै सुनत में नीकी ।
ईसुर सांसऊ सरग नसेनी, रामायन तुलसी की ।।

लोक मन की यह मान्यता है कि ईश्वर जिसकी रक्षा करता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़
सकता है । जाके रामचन्द्र रखवारे, कौ कर सकत दगा रे । बुन्देलखण्ड का लोकमन किसी एक ईश्वर की आराधना नहीं करता जहाँ वह राम की आराधना करता है, वहीं कृष्ण को भी अपनी सहायता के लिए पुकारता है । उसका विश्वास है कि ईश्वर घट-घटवासी है, दीन हृदय की पुकार वह अवश्य सुनाता है । ईसुरी ने भी अपनी फाग में यही कहा है ।
जिनखाँ दीन द्रोपदी रोई, सुने कृष्ण जां होई ।
ईसुर बचा लाज लई उनने, वे चाहें सो होई ।।

इस क्षणभंगुर संसार को नश्वर माना गया है और यही ईसुरी भी कहते हैं –बखरी रैयत है भारे की, दई पिया प्यारे की । और धर्म ही एक मात्र ऐसा साधन हे जो इस क्षण भंगुर संसार से मुक्ति दिला सकता है।
दीपक दया धरम को जारौ, सदा रात उजयारौ ।
धरम करे बिन करम खुलै ना, बिना कुची ज्यों तारौ ।।

समग्रतः हम देखते हैं कि बुन्देलखण्ड के ‘जयदेव’ ईसुरी ने न केवल प्रेम को अपनी फागों में स्वर दिया बल्कि श्रँृगार, नीति, शक्ति, ज्ञान, वैराग्य, प्रकृति, समाज आदि विविध विषयों पर भी फागें लिखी । इस ‘आशु’ कवि की प्रतिभा बेजोड़ थी । जिसके सामने कोई भी विषय गिरि नहीं बन सका । ईसुरी की फागें बुन्देली जन-मानस के लोकरंजन और मौज-मस्ती करने में पूर्णतः सक्षम हैं ।

बुन्देलखण्ड में होली के अवसर पर ढोलक की ठमक, झांझ की झमक एवं नगड़िया की ठनक के साथ जब फागें गायी जाती हैं तब मलिन चेहरा भी प्रफुल्लित होकर आनंद सागर में गोते लगाने लगता है । इसलिए ईसुरी की फागें बुन्देली कण्ठ की पर्याय बन गयी हैं । ईसुरी की फागों में ईसुरी का ही हृदय तरंगायित नहीं हुआ है बल्कि एक सच्चे और भोले भाले बुन्देलवासी की भावनायें मुखरित हुई हैं । ईसुरी ने जिस किसी भी विषय को उठाया है उसपर अपनी प्रतिभा की छाप अवश्य छोड़ी है। पाठक चाहे सुनें या न सुनें, पर ईसुरी तो आज भी पुकार रहे  है –

ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें ।
बिना काम कौ कोऊ नइयाँ, कामें सबहाँ जाने ।
करिया काम घरी भर रैं कैं, बिगर कछु नइ जानें ।
ई धंधे के बीच ईसुरी, करत-करत कर जानें ।।

आलेख – डॉ. बहादुर सिंह परमार
4/2, प्रोफेसर्स कॉलोनी, छतरपुर (म.प्र.)

Source: Bundeli Jhalak

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