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बुंदेलखंड की पावन धरती पर जन्मे युधिष्ठिर और भीम के अवतार: आल्हा और ऊदल

बुंदेलखंड की पावन धरती पर जन्मे युधिष्ठिर और भीम के अवतार: आल्हा और ऊदल

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भारत के इतिहास में कई ऐसे राजा और रानियाँ हुए हैं, जिनकी वीरता का शँखनाद आज भी पूरी दुनिया में गूँजता है। इतिहास में बहुत-से कर्मवीर और पराक्रमी पुरुषों ने अपनी प्रजा और अपने परिवार की रक्षा के लिए कई प्रकार के त्याग और परिश्रम किए। पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप और रानी लक्ष्मी बाई आदि जैसे वीर सपूतों से हर कोई वाकिफ है, लेकिन बुंदेलखंड (Bundelkhand) की पावन धरती पर जन्मे दो भाई आल्हा-ऊदल की कहानी भी साहस और आत्मविश्वास से भरी हुई है। ऐसा माना जाता है कि ये दोनों महाभारत के प्रसिद्ध पात्रों यानि पांडवों में से दो भाई युधिष्ठिर और भीम के अवतार थे। इन दोनों भाइयों की वीरता की जितनी प्रशंसा की जाए, कम ही है। बुंदेली (Bundeli) संस्कृति से ताल्लुक रखने वाले लोग आज भी उनकी बहादुरी पर गर्व करते हैं और शान से अपने बच्चों को उनके मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं। 

पं. ललिता प्रसाद मिश्र ने अपने ग्रन्थ आल्हखण्ड की भूमिका में आल्हा को युधिष्ठिर और ऊदल को भीम का साक्षात अवतार बताते हुए लिखा है, "ये दोनों वीर अवतारी होने के कारण अतुल पराक्रमी थे। इन दोनों का जन्म प्राय: 12वीं विक्रमीय शताब्दी में हुआ और 13वीं शताब्दी के पुर्वार्द्ध तक अमानुषी पराक्रम दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।"

मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले वीर आल्हा-ऊदल राजपूत योद्धा थे। दोनों भाई बचपन से ही भौतिक ज्ञान और शास्त्र ज्ञान दोनों में निपुण थे। आल्हा-ऊदल का जन्म 12वीं शताब्दी में बुंदेलखंड स्थित महोबा के दशहरपुरवा नामक स्थान पर बनाफर वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम दक्षराज बनाफर और माता का नाम देवला परिहार था। उनकी एक बहन भी थी, जिसका नाम सुजाता था। वे महोबा के राजा परमाल चंदेल के सेनापति थे। 

Alha-Udal


आल्हा-ऊदल (Alha-Udal) का नाम इतिहास के पन्नों में अमर है। उनकी शौर्य गाथा बड़े लड़ैया महोबे वाले जिनकी मार सही न जाए, एक के मारे दुई मरि जावैं तीसर खौफ खाय मरि जाए उत्तर भारत के हर कोने में गाई जाती है, जो इस प्रकार है:

बड़े लड़ैया महोबे वाला जिनके बल को वार न पार 

"जौन घड़ी यहु लड़िका जन्मो दूसरो नाय रचो करतार
सेतु बन्ध और रामेश्वर लै करिहै जग जाहिर तलवार
किला जीती ले यह माडू का बाप का बदला लिहै चुकाय
जा कोल्हू में बाबुल पेरे जम्बे को ठाडो दिहे पिराय
किला किला पर परमाले की रानी दुहाई दिहे फिराय
सारे गढ़ो पर विजय ये करिके जीत का झंडा दिहे गडाय
तीन बार गढ दिल्ली दाबे मारे मान पिथौरा क्यार
नामकरण जाको ऊदल है भीमसेन क्यार अवतार"

835 वर्ष पहले शहर के ऐतिहासिक कीरत सागर तट पर दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान से हुए भीषण युद्ध में आल्हा-ऊदल ने जीत दर्ज की थी। रक्षाबंधन के दिन युद्ध होने के चलते बुंदेलों (Bundeli) ने उस दिन पर्व नहीं मनाया और दूसरे दिन विजय मिलने के बाद बहनों ने भाइयों की कलाई पर राखी बांधी थी। तभी से महोबा में रक्षाबंधन का पर्व दूसरे दिन मनाया जाता है और एक सप्ताह तक विशाल मेले का आयोजन होता है। बुंदेलखंड के महोबा जिले में आज भी ऊदल चौक से ऊदल के सम्मान में लोग घोड़े पर सवार होकर नहीं गुजरते हैं। आल्हा-ऊदल 12वीं शताब्दी के ऐसे किरदार हैं, जिन्हें पृथ्वीराज चौहान का समकालीन माना जाता है।

ऐसी किंवदंती है कि आल्हा देवी माँ के बड़े भक्त थे और बचपन से ही उनकी पूजा करते आ रहे थे। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर माँ ने उन्हें पराक्रम और अमरत्व का वरदान दिया था। आल्हा को मध्यप्रदेश के मैहर स्थित माँ शारदापीथ का परम भक्त माना जाता है। आज भी स्थानीय लोगों को मानना है कि आल्हा अमर हैं और वे हर दिन माँ शारदा के मंदिर दर्शन करने आते हैं। ऐसी भी किंवदंती है कि आज भी वे हर सुबह मंदिर में माँ की आरती और पूजा करने आते हैं। मंदिर में आल्हा द्वारा माँ शारदा के दर्शन करने के सबूत भी मिलते हैं। इसके साथ ही, आल्हा ने गुरु गोरखनाथ की एक वर्ष सेवा की। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने आल्हा से वरदान माँगने को कहा। इसके तहत गुरु गोरखनाथ ने भी आल्हा को अमर होने का आशीर्वाद दिया था। 

अपने जीवनकाल में दोनों भाइयों आल्हा-ऊदल ने 52 से ज्यादा जंग लड़ी, खास बात यह है कि वे सदैव विजयी रहे। 12वीं शताब्दी के एक कवि जगनिक की कविता में 'आल्हा खंड' के अंतर्गत दोनों भाई की वीरता के किस्से और कहानियों को शामिल किया गया है। साथ ही, इस कविता उनके द्वारा लड़ी गई 52 लड़ाइयों का भी जिक्र करती है। आल्हा खंड के अनुसार आखिरी लड़ाई उन्होंने पृथ्‍वीराज चौहान से लड़ी थी, जिसमें यह कहा जाता है कि उन्होंने परम पराक्रमी पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया था। हालाँकि, अपने गुरू गोरखनाथ के कहने पर पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था। आल्हा खंड के अनुसार इस लड़ाई में ऊदल वीरगति को प्राप्त हो गए थे, जिसके गम में आल्हा ने वैराग्य धारण कर लिया था।

इतिहास में कुछ पात्र ऐसे होते हैं, जिनके बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य से ज्यादा, सैकड़ों वर्षों से उन्हें लेकर चली आ रही प्रसिद्धि के बखान मिलते हैं। वीरगाथा काल के आल्हा और ऊदल ऐसे ही पात्र हैं, जिन्हें परंपरागत इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिनके वे वास्तव में हकदार थे। लेकिन उनकी बहादुरी के किस्से लोगों के मन में पीढ़ियों से वे इस तरह रच-बस गए हैं कि 835 वर्ष बाद भी वे भारतीय लोगों के दिलों में जीवित हैं। 

आज के दौर में भी महोबा में कोई भी सामाजिक संस्कार आल्हा-ऊदल की कहानी के बिना पूरा नहीं होता है। इतना ही नहीं, यहाँ के लोग बच्चों के नाम भी आल्हा खंड से लेकर रखते हैं। आल्हा-ऊदल का बुंदेलखंड (Bundelkhand) में ऐसा असर है कि सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गाँव-गली में उनके शौर्य पर लिखे गए गाने गाए जाते है। जैसे कि उपरोक्त बड़े लड़ैया महोबे वाले खनक-खनक बाजी तलवार आज भी स्थानीय लोगों की जुबान पर है।

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