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ऊदल और 'फुलवा' की प्रेम कहानी (Fulwa - Udal Ki Prem Kahani)

जब भारत देश की अथाह सुंदरियों में से एक 'फुलवा' ने मोह लिया शूरवीर और परम प्रतापी ऊदल का मन (Udal Ki Prem Kahani)

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प्रेम कहानियाँ तो आपने बेशक कई सुनी होंगी, लेकिन एक ऐसे शूरवीर और शस्त्रधारी, जिससे सारी दुनिया थर-थर काँपती हो, उसे प्रेम जाल में फँसे हुए शायद ही कभी देखा या सुना होगा। आज हम आपको एक ऐसी ही प्रेम की सत्य कथा से रूबरू कराने जा रहे हैं, जिसमें बुंदेलखंड की शान कहलाने वाले परम प्रतापी ऊदल एक राजकुमारी के सामने अपना दिल हार बैठे और अस्त्रों-शस्त्रों की महारत को अपने प्रेम के आगे एक या दो नहीं, बल्कि छह महीनों के लिए न्यौंछावर कर बैठे। 

यह कथा है 12 वीं शताब्दी की, जब बुंदेलखंड के दो भाई आल्हा और ऊदल का देश में बहुत बोलबाला था। शिवगढ़ नामक जिले में एक बहुत ही प्रतापी और बहादुर राजा रहा करते थे। इन परम प्रतापी राजा का नाम मकरंदी था, जो जिले में स्थित नरवर किले में रहते थे और वहीं से अपनी प्रजा का पालन-पोषण किया करते थे। आज के समय की बात करें, तो नरवर दुर्ग भारत के मध्य प्रदेश राज्य के शिवपुरी जिले के नरवर नगर में स्थित एक ऐतिहासिक दुर्ग है। यह विंध्य पर्वतमाला की एक पहाड़ी पर 500 फुट की ऊँचाई पर स्थित है और 8 वर्ग किमी के क्षेत्रफल पर फैला हुआ है। आल्हाखंड में हुई 52 लड़ाइयों में नरवर गढ़ का भी उल्लेख मिलता है। 

शत्रु काँपते थे थर-थर 

राजा अस्त्र-शस्त्र के ज्ञान में निपुण थे। वे बहुत ही बलवान थे। कोई भी शत्रु उनके राज्य पर आक्रमण करने से पहले बहुत सोच-विचार किया करता था। इसका सबसे बड़ा कारण है कि ऐसा कोई भी शत्रु नहीं था, जिसे राजा पराजित करने में असमर्थ रहे हों। जो भी सामने आता, हारने की मंशा लेकर ही आता, क्योंकि उनके सामने से जीतकर निकलना लगभग नामुमकिन ही था। 

राज्य में प्रजा राजा से बहुत खुश थी। राजा के राज्य में सभी लोग एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहा करते थे। प्रजा अपने राजा का बहुत सम्मान किया करती थी और उनसे अपार प्रेम करती थी। 

देश की अनंत सुंदरियों में से एक थीं फुलवा 

राजा मकरंदी की एक बहन थी, जिसका नाम राजकुमारी फुलवा था। राजकुमारी फुलवा देखने में बहुत ही सुंदर और सुशील थी। वह भारत देश की सुंदर कन्याओं में से एक थी। राजकुमारी के सौंदर्य की पूरे भारत देश के छोटे एवं बड़े राजघरानों और आम जनता में चर्चा बनी रहती थी। हर व्यक्ति राजकुमारी के सौंदर्य को देखने के लिए लालायित रहता था। राजकुमारी फुलवा के सुंदर रूप को देखने के लिए लोग हर समय तरह-तरह के प्रयत्नों में लगे रहते थे। प्राचीन समय की रीति के अनुसार राजकुमारी को फूलों से तोला जाता था। 

राजा मकरंदी के राज्य में परम प्रतापी, हर कला में निपुण और अस्त्रों-शस्त्रों के ज्ञान से भरपूर दोनों भाई यानि आल्हा और ऊदल भी रहा करते थे। उस समय आल्हा-उदल के पराक्रम की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। ऊदल देखने में परम तेजस्वी और बहुत ही सुंदर था। राजकुमारी फुलवा को जब आल्हा-ऊदल की वीरगाथाओं और उदल के सौंदर्य के बारे में पता चला, तो कहीं ना कहीं उसके मन में ऊदल से मिलने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। 

दोनों भाई ज्यादातर भ्रमण पर रहते थे। वे भ्रमण करते हुए एक बार नरवर आए। इस दौरान ऊदल की नज़र पहली बार राजा मकरंदी की बहन राजकुमारी फुलवा पर पड़ी और वे उसे देखते ही रह गए। ऊदल फुलवा को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए और देखते ही देखते उन्हें राजकुमारी फुलवा से प्रेम हो गया। 

राजकुमारी तक पहुँचने के लिए शस्त्रों में निपुण ऊदल ने गजरे बनाए 

उधर ऊदल राजकुमारी से मिलने के लिए बहाने ढूँढने लगे। एक दिन ऊदल ने देखा कि राजकुमारी के लिए एक मालिन हर दिन फूलों का गजरा बना कर ले जाया करती है। दुश्मन का सर कलम करके रख देने वाले ऊदल को विशेष एवं सुंदर गजरा बनाने में महारत हासिल थी। उन्होंने मालिन से निवेदन किया कि इस बार राजकुमारी के लिए गजरा वे बनाएँगे। मालिन मान गई और ऊदल के हाथों का बना हुआ बेहद सुंदर गजरा लेकर राजकुमारी के पास पहुँची। राजकुमारी उस गजरे को देखती ही रह गई।

जब मालिन ने बताया कि यह गजरा उसने नहीं बनाया है, तो राजकुमारी ने खूबसूरत गजरे बनाने वाले व्यक्ति से मिलने की इच्छा प्रकट की। इसके बाद राजकुमारी फुलवा के आदेश के अनुसार मालिन ने ऊदल को राजकुमारी की उनसे मिलने की इच्छा के बारे में बताया और एक महिला के वेश में वह ऊदल को महल के अंदर राजकुमारी के पास ले गई।

राजकुमारी ऊदल को एक टक देखती ही रह गई। अपने आप को खो चुकी फुलवा मंत्रमुग्ध हो गई और उसे ऊदल से प्रेम हो गया। प्रेम का बंधन कुछ यूँ बना कि राजकुमारी फुलवा ने ऊदल को अपने ही पास रोक लिया और अपने ही कक्ष में छुपा लिया। ऊदल और राजकुमारी फुलवा बहुत दिनों तक एक साथ एक ही कक्ष में रहे।

फिर प्रेम कहानी ने ले लिया कुछ ऐसा मोड़ (Udal Ki Prem Kahani)

एक बार राजकुमारी को फूलों से तोला गया, तो उनके वजन में बहुत बड़ा अंतर आया, यानि उनका वजन काफी बढ़ गया था। राजा मकरंदी को यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि राजकुमारी का किसी पुरुष के साथ स्पर्श हुआ है। राजा ने महल के सैनिकों को तुरंत राजकुमारी के कक्ष की तलाशी लेने का आदेश दिया। जब महल की तलाशी ली गई, तो राजकुमारी के महल के तलघर में सैनिकों ने ऊदल को सोता हुआ पाया। राजा ने ऊदल को तुरंत बंदी बना कर हवापौर के ऊपर बनी एक भक्छी में कैद कर दिया। तब से उस भक्छी का नाम ऊदल भक्छी पड़ गया।

युद्ध से शुरू होकर विवाह पर जाकर पूरी हुई प्रेम गाथा (Veer Udal Aur Fulva Ke Shadi)

शस्त्रों में निपुण ऊदल की प्रेम गाथा बड़ी ही रोमांचक है, जो युद्ध से शुरू हुई और विवाह की मंजूरी पर जाकर पूरी हुई।

हुआ कुछ यूँ कि छह माह बीत गए और ऊदल अपने भाई आल्हा के पास नहीं पहुँचे। जब आल्हा ने ऊदल की खोजबीन शुरू की, तो उन्हें पता चला कि उनके भाई को नरवर के राजा मकरंदी ने बंदी बना लिया है। इसके बाद, आल्हा अपने गुरु, अमरा गुरु के साथ नरवर पहुँचे। अमरा गुरु को शारदा देवी से सिद्धि प्राप्त थी। गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए आल्हा ने युद्ध का ऐलान किया और नरवर के सुरक्षा द्वार को तोड़ते हुए सभी सैनिकों को मार कर नरवर के किले में जा पहुँचे और किले के भीतर तैनात कई सिपाहियों को घायल कर दिया। 

जब नरवर के सभी वीर योद्धा आल्हा से परास्त हो गए, तब घायल सैनिकों के पास राजा की शरण लेने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा। उन्होंने राजा को बताया कि ऊदल के भाई आल्हा ने नरवर किले पर हमला कर दिया है, और जो भी उनके सामने आता है, वह उसे मौत की नींद सुला देता है। 

आल्हा की प्रबलता जान राजा मकरंदी घबरा गए और अपना मुकुट उतार कर आल्हा के चरणों में रख दिया। राजा ने अपनी गलती के लिए आल्हा से खूब क्षमा याचना की। लेकिन आल्हा का क्रोध क्षमा याचना से नहीं, बल्कि उनके अमरा गुरु के आदेश से शांत हुआ और इस प्रकार आल्हा ने राजा को क्षमा कर दिया। 

राजा ने ऊदल को बंदीगृह से बाहर निकाला और राजकुमारी फुलवा का विवाह ऊदल से कराने का निर्णय लिया। इसकी विस्तृत कहानी इतिहास के पन्नों में अंकित है, जो आल्हा-ऊदल के बुंदेलखंडी लोकगीत (रसिया) में आज भी गाई जाती है।

नरवर किले की एक नहीं, बल्कि तीन-तीन प्रेम कहानियाँ इतिहास के पन्नों में अमर हैं, जिसमें राजा नल-दमयंती, ढोला-मारू तथा फुलवा-ऊदल की प्रेम कहानियाँ शामिल हैं।

महाभारत काल को रखा हुआ है जीवंत 

परंपरागत रूप से कहा जाता है कि नरवर संस्कृत महाकाव्य महाभारत के राजा नल की राजधानी थी, इस शहर को 12वीं शताब्दी तक नलपुरा कहा जाता था। नरवर महाभारत कालीन अवशेषों के अलावा विश्व प्रसिद्ध आल्हा-ऊदल (Aalha Udal) की लड़ाई का भी गवाह है।

महान राजा नल श्रेष्ठ (वर) नर के नाम से विख्यात हैं। उनके नाम पर ही नरवर को बसाया गया था। नल राजा वीरसेन के पुत्र थे। महाभारत काल में जब पांडव अपना सब कुछ जुए में हारकर वन-वन भटक रहे थे, तब युधिष्ठिर ने ऋषि वृहदश्व से पूछा कि हमने ऐसा क्या किया कि हमें यह सब भोगना पड़ा। इसके बाद ऋषि ने युधिष्ठिर को बताया कि नरवर के राजा नल को भी उनके छोटे भाई ने छल से जुए में हराकर सब-कुछ छीन लिया था। राजा नल इतने प्रतापी थे कि जब वे अपनी पत्नी को साथ लेकर वहाँ से जाने लगे, तब उनके सम्मान में महल के सारे कंगूरे झुक गए और उनकी कुलदेवी खजाने की रक्षा के लिए किले के दरवाजे के समीप आकर लेट गईं। तभी से उनका नाम पसरदेवी पड़ा। इसलिए राजा नल को श्रेष्ठ कहा गया है।

किले के मुख्य द्वार के पास ही पसरदेवी का मंदिर है। यहाँ माता की विशाल मूर्ति लेटी हुई अवस्था में विराजित है। 12 फीट लंबी और आठ फीट चौड़ी पसरदेवी की मूर्ति की दोनों भुजाओं के नीचे 7 से 8 फीट का गहरा गड्ढा है। इसमें सिक्का डालने पर 'खन्न्' की आवाज आती है, इसलिए इसे धन और खजाने से जोड़ा जाता है। यही इस जगह की सबसे बड़ी विशेषता है। इसका वृत्तांत महाभारत के वनपर्व में भी मिलता है। 

किले का इतिहास और खूबसूरत बनावट 

नरवर पर मुगल शासक औरंगजेब सहित राजपूतों और सिंधिया शासकों ने भी राज किया है। इसलिए यहाँ के किले में समय-समय पर हुए सत्ता परिवर्तन के निशान देखने को मिलते हैं। नरवर में कछवाहों का भी राज रहा है, लेकिन वे इसे ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रख सके थे। कहा जाता है कि कछवाहा राजपूतों ने 10वीं शताब्दी में नरवर पर कब्जा करने के बाद किले का पुनर्निर्माण करवाया था। कछवाहा, परिहार और तोमर राजपूतों ने 12वीं शताब्दी के बाद से 16वीं शताब्दी तक इस पर राज किया, इसके बाद में मुगलों द्वारा इस पर कब्जा कर लिया गया। तत्पश्चात 19वीं सदी की शुरुआत में मराठा सरदार सिंधिया ने इस पर कब्जा कर लिया था। वर्ष 1901 तक नरवर जिला हुआ करता था, लेकिन सिंधिया शासकों ने शिवपुरी शहर बसाकर उसे जिला बनाया। 

वर्तमान समय में नरवर का यह किला जीर्ण-शीर्ण हालत में है और उचित मरम्मत एवं देखभाल की भीख माँग रहा है, लेकिन किले में व्याप्त अवशेषों से पता चलता है कि समृद्ध दिनों में, यह भव्यता में ग्वालियर किले के बाद बेशक दूसरे स्थान पर रहा होगा। किले के आंतरिक भाग को क्रॉस दीवारों द्वारा चार अहाता और ढोलाहाटा में विभाजित किया गया है। किले और महलों की वास्तुकला मूल रूप से राजपूत शैली की है, जिसमें सपाट छत, बाँसुरीदार स्तंभ और कई मेहराब देखने को मिलते हैं। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध गायक बैजू बावरा भी यहाँ आ चुके हैं।

महलों के भीतर की दीवारों में चमकीले पेंट और काँच के मोतियों की सजावट देखते ही बनती है। किले के पास जय स्तंभ, सती स्मारक, लाडू बंगला, छिप महल, मकरध्वज ताल, कचेरी महल, सिकंदर लोदी की मस्जिद और जेल कंभा आकर्षण के केंद्र हैं। चारदीवारी के बाहर तोमर सरदारों के स्मारक स्तंभ हैं। यहाँ लोढ़ीमाता का मंदिर, पसर देवी का मंदिर, चौदह महादेव, 8 कुआँ 9 बावड़ी, टपकेश्वर महादेव आदि देखने लायक स्थान हैं। नरवर का किला सनातन, हिंदू, मुस्लिम और जैन संस्कृति का केंद्र भी है।


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