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बुंदेलखंड के शौर्य और समर्पण के प्रतीक - महाराजा छत्रसाल

          

बुंदेलखंड की धरती पर कई वीरों ने जन्म लिया है। यह महान योद्धा आल्हा ऊदल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, प्रतापी वीर सिंह जू देव, रणचंडी दुर्गावती, चन्द्र शेखर आजाद, पं.परमानन्द, गुलाम गौस खां, आदि की भूमि है। इन्हीं वीरों में एक नाम और आता है, जिनके नाम से आज भी बुंदेलखंड गौरवान्वित महसूस करता है यह इतिहास का वो नाम है जिसने मुगल साम्राज्य का विरोध किया और बुंदेलखंड में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।

यह हैं महान योद्धा और बुंदेलखड के शासक महाराजा छत्रसाल, जिन्होंने इस वीर भूमि को अपने शौर्य से हमेशा के लिए इतिहास में अमर कर दिया। मुगलों के खिलाफ लगातार कई युद्ध जीतने की वजह से राजा छत्रसाल को बुंदेलखंड के शिवाजी के नाम से भी इतिहास में याद किया जाता है। महाराजा छत्रसाल ने किशोरावस्था में ही मुगलो के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था और बुंदेला साम्राज्य की स्थापना की थी। तब ताकतवर मुगल साम्राज्य के खिलाफ लड़ना कोई आम बात नहीं थी। 

                                         


 4 मई, 1649 को टीकमगढ़ के कछार कचनाई यानी वर्तमान मध्य प्रदेश में जन्मे राजा छत्रसाल ने 56 वर्षों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। उनके पिता का नाम चंपत राय और माता का नाम लाल कुंवर था। उनके पिता एक बुंदेला सरदार थे जिन्होंने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह किया था। विद्रोह के कारण औरंगजेब ने उनके पिता चंपत राय की हत्या करवा दी थी, तब छत्रसाल की उम्र मात्र 12 वर्ष थी। पिता की हत्या के वक्त छत्रसाल अपने मामा के यहां युद्ध कौशल सीख रहे थे। 

पिता की हत्या के बाद छत्रसाल अपने भाई के साथ अपने पिता के मित्र राजा जय सिंह के पास पहुंचे और उनकी सेना में भर्ती हो गए। राजा जय सिंह दिल्ली सल्तनत के लिए काम करते थे। माना जाता है कि छत्रसाल ने एक बार इस सेना के लिए युद्ध भी लड़ा, लेकिन बाद में सेना से अलग हो गए और अपनी सेना बनाने की तैयारी करने लगे। इसी दौर में मराठा सरदार शिवाजी भी मुगलों से लोहा ले रहे थे। शिवाजी से प्रेरित होकर युवा छत्रसाल उनसे मिलने पहुंचे। शिवाजी ने छत्रसाल को परामर्श दिया कि अपने इलाके में ही मुगलों के साम्राज्य को कमजोर करो। कहते हैं शिवाजी ने उन्हें एक तलवार भी भेंट की थी जिसे भवानी कहा जाता था। 

                                               


शिवाजी से मुलाकात के बाद छत्रसाल वापस लौटे और बुंदेलखंड के राजाओं और जागीरदारों को मुगलों के खिलाफ एक करने का प्रयास किया लेकिन तब बुंदेलखंड के छोटे जागीरदारों को मुगलों के खिलाफ करना आसान नहीं था, क्योंकि ज्यादातर जागीरदार मुगलों के लिए काम करते थे। छत्रसाल ने कई राजाओं से भी बातचीत की लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। पिता की मौत के बाद छत्रसाल के पास भी कोई ऐसी संपत्ति नहीं बची थी जिसके जरिए मुगलों के खिलाफ आवाज उठाई जा सके, लेकिन युवा छत्रसाल ने मात्र 5 घुड़सवारों और 25 तलवारबाजों के साथ सेना बनाई और 1671 में केवल 22 वर्ष की उम्र में विशाल और क्रूर मुगल साम्राज्य के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल फूंक दिया। 

छत्रसाल ने जो अपनी शुरुआती सेना बनाई थी उसमें प्रशिक्षित योद्धा नहीं थे बल्कि इसमें तेली, बारी, मुस्लिम और मनिहार जातियों के लोग शामिल थे। अपनी छोटी सी सेना के साथ छत्रसाल ने पहला हमला धंधेरों पर किया जिन्होंने उनके पिता के साथ विश्वासघात किया था। इसके बाद राजा छत्रसाल ने वो इतिहास लिखा जिसे आज भी याद किया जाता है। उन्होंने एक के बाद एक कई मुगल सरदारों को हराया। उनकी वीरता और साहस का प्रभाव था कि अगले एक दशक में पूर्व में चित्रकूट, छत्तरपुर व पन्ना और पश्चिम में ग्वालियर तक उनका शासन हो गया। उत्तर में कालपी से लेकर दक्षिण में सागर, घरकोटा, शाहगढ़ और दमोह तक उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उनका निधन 20 दिसंबर, 1731 को हुआ था। 

82 साल की अपनी जिंदगी में 52 लड़ाइयां जीतने वाले राजा छत्रसाल के बारे में कविवर भूषण ने कहा था.छत्ता तोरे राज में धक-धक धरती होय, जित-जित घोड़ा मुख करे तित-तित फत्ते होय”, आज भी राजा छत्रसाल बुंदेलखंड की वीरता का प्रतिक हैं। 

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