कहीं देखी है ऐसी प्रथा, जहाँ नन्हें बच्चे करते हैं तर्पण?

 Children

दुनियाभर में पितृ तर्पण के लिए धार्मिक क्रिया कर्म के लिए विभिन्न तौर-तरीके प्रचलित हैं। लेकिन इन सभी से अलग उत्तर भारत के बुंदेलखंड में लोक जीवन के विविध रंगों में पितृपक्ष पर पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और समर्पण का अंदाज सबसे जुदा है। बुंदेलखंड अंचल में प्रचलित 'महबुलिया' एक ऐसी अनूठी परंपरा है, जिसे घर के बुजुर्गों के स्थान पर छोटे बच्चे पूरा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि सदियों पूर्व महबुलिया नाम की एक वृद्ध महिला थी, जिन्होंने इस विशेष पूजा की शुरुआत की थी। बाद में इसका नाम ही महबुलिया पड़ गया। 

पुरखों के तर्पण के लिए यहां पूजन-अनुष्ठान-श्राद्ध आदि के आयोजनों के अतिरिक्त बच्चों (बालिकाओं) की महबुलिया पूजा बेहद खास है जो नई पीढ़ी को संस्कार सिखाती है। समूचे विंध्य क्षेत्र में लोकपर्व का दर्जा प्राप्त 'महबुलिया' की पूजा का अपना अलग ही तरीका है। बच्चे कई समूहों में बंटकर इसका आयोजन करते हैं। महबुल को एक कांटेदार झाड़ में रंग बिरंगे फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है। विधिवत पूजन के बाद इस सजे हुए झाड़ को बच्चे गाते बजाते हुए गांव के किसी तालाब या पोखर में ले जाते हैं, जहां फूलों को कांटों से अलग कर पानी में विसर्जित कर दिया जाता है।महबुलिया के विसर्जन के बाद वापसी में ये बच्चे राहगीरों को भीगी हुई चने की दाल और लाई का प्रसाद बांटते हैं। यह प्रसाद सभी बच्चे अपने घरों से अलग-अलग लाते हैं। पूरे पंद्रह दिनों तक गोधूलि वेला पर हर रोज पितृ आव्हान और विसर्जन के साथ इसका आयोजन सम्पन्न होता है। इस दौरान यहां के गांवों की गलियां तथा चौबारे बच्चों की मीठी तोतली आवाज में गाए जाने वाले महबुलिया के पारम्परिक लोक गीतों से गूंज उठते हैं।

यहाँ हर रोज अलग-अलग घरों में महबुलिया पूजा आयोजित होती है, जिसमें घर की एक वृद्ध महिला साथ बैठकर बच्चों को न सिर्फ पूजा के तौर तरीके सिखाती है, बल्कि पूर्वजों के विषय में जानकारी भी देती हैं। इसमें पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शन के साथ सृजन का भाव निहित है। पितृपक्ष में बुजुर्ग जहां सादगी के साथ पुरखों के पूजन तर्पण आदि में व्यस्त रहते हैं और घर माहौल में सन्नाटा पसरा रहता है, तब महबुलिया पूजन के लिए बालिकाओं की चहल पहल ही खामोशी तोड़ती है तथा वातावरण को खुशनुमा बनाती है।

हालांकि समय में बदलाव के साथ अब यह परम्परा यहां के गांवों तक ही सिमट कर रह गई है। बदलते दौर में सांस्कृतिक मूल्यों के तेजी से ह्रास होने के कारण महबुलिया भी प्रायः विलुप्त हो चली है। आधुनिकता की चकाचौंध में बुंदेलखंड के नगरीय इलाकों में तो इसका आयोजन लगभग खत्म हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह दम तोड़ चली है।

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