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पर्यावरण दिवस पर जलयोद्धा उमाशंकर से हुई कुछ खास बातचीत

पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर अमर उजाला से बातचीत में उमा शंकर कहते हैं, हमने नारा खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़। अब इसी को सीखने आज अमेरिका, जापान, जर्मनी, आस्ट्रलिया, दक्षिण अफ्रीका और इस्राइल के लोग हमारे पास आ रहे हैं.

                               


आज मुझे यह कहते हुए गर्व और मेरा सीना चौड़ा हो रहा है कि दुनिया के विकसित और विकासशील देश हमारे पास भूजल संरक्षण की हमारी प्राचीन पद्धति को सीखने आ रहे हैं। बुंदेलखंड का यह छोटा सा गांव जखनी जो अब जलग्राम के नाम से प्रसिद्ध हो गया है, दुनिया को बता रहा है मेड़बंदी ही हमारी सबसे प्राचीण प्रद्धति है, जिससे भूजल को संरक्षित किया जा सकता है। 

वर्षा का पानी जहां गिरे, वहीं उसे रोक लो। बहने मत दो, बर्बाद होने मत दो, यही बात दुनिया को बता रहे हैं। कहते हुए खुशी और ऊर्जा के तेज से खिल उठता है पद्मश्री जलयोद्धा उमाशंकर पांडे का चेहरा। पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर अमर उजाला से बातचीत में उमा शंकर कहते हैं, हमने नारा खेत में मेड़, मेड़ पर पेड़।

अब इसी को सीखने आज अमेरिका, जापान, जर्मनी, आस्ट्रलिया, दक्षिण अफ्रीका और इस्राइल के लोग हमारे पास आ रहे हैं। अब आपके देश का छोटा सा गांव जलग्राम जखनी दुनिया को अपने पुरखों की भूजल संरक्षण के तरीके बताएगा। आज दुनिया जानना चाहती कैसे बंजर भूमि में फसलें लहलहाईं, कैसे बंजर भूमि में पानी की नदियां बह निकलीं। कैसे बुंदेलखंड की सुखी भूमि में हरे पेड़ और पौधे आज दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। दुनिया जानना चाहती है कैसे बदली बंजर बुदेलखंड की तकदीर और तस्वीर।


जहां गिरें जल की बूंदें, वहीं रोको
पांडेय बताते हैं, भूजल संरक्षण का एक ही तरीका है, जहां गिरें जल की बूंदें, वहीं उसे रोक लें। उसे बहने नहीं दें, उसे बर्बाद होने नहीं दें। इसके लिए हमारे पुरखों ने खेतों में मेड़ और मेड़ों पर पेड़ लगाने का उत्तम और वैज्ञानिक तरीका दिया है। यही तरीका हमने बांदा और बुलेंदलखंड अपनाया। चित्रकूट जहां मालगाड़ी के डिब्बों से किसानों को पानी पहुंचाया जाता था। आज उन्हीं मालगाड़ी की डिब्बों से धान की ढुलाई हो रही है। किसानों ने मेड़बंदी की। 
बरसात की बूंदों को बर्बाद नहीं होने दिया। बरसात का पानी खेतों रही। अब वहां का किसान अपनी पुरखों की वैज्ञानिक और बिना आधुनिक तकनीक के हजारों कुंतल धान की उगा रहा है। केवल बांदा में ही 20 लाख कुंतल धान की उपज हुई। जहां कभी धान खरीद सेंटर नहीं थे, वहां धान सेंटर बने। यह सब कुछ संभव हुआ, भूजल संरक्षण से। खेतों में मेड़ और मेड़ों पर पेड़ों की विधि से। इसमें सबसे ज्यादा अगर किसी का योगदान है तो जन सहभागिता का। किसनों ने मिलकर सामूहिक प्रयास किए और नतीजे आपके सामने हैं।

जल संरक्षण केवल सरकार का काम नहीं
पिछले करीब साढ़े तीन दशकों से जल बचाने की मुहिम को जीवन का अभिन्न अंग बना चुके पांडेय ने एक सवाल के जवाब में कहा, अब पूरी दुनिया को समझ आ गया है कि भविष्य में पानी की समस्या सबसे बड़ी होने वाली है। लोगों को लगता है कि पानी बचाने का काम सरकारों का है। लेकिन मेरा मानना है कि पानी बचाना केवल सरकार का ही काम नहीं है बल्कि इसमें जन भागीदारी बहुत जरूरी है। समाज में वही चीज जिंदा रही है, जिसमें समाज और समुदाय की भागीदारी रहती है। लोगों को अपने-अपने स्तर पर इस पर काम करना होगा।

पानी नहीं बना सकता इनसान
शायद इनसान बहुत कुछ कर सकता है लेकिन इनसान न तो बादल बना सकता है और न ही बादल कहीं से ला सकता है। इनसान बादल को फोड़ भी नहीं सकता है। न ही बादल को इनसान एक जगह से दूसरी जगह ही शिफ्ट कर सकता है। और न ही बारिश को रोक सकता है। इंसान केवल धरती पर बरसात के समय गिरीं बूंदों को संजो सकता है। संरक्षण कर सकता है। क्योंकि जल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन है। ये जा हरियाली देख रहे हैं, वह सब कछ पानी के कारण ही है। इसलिए दुनिया के लोगों को अब बारिश की बूंदों को सहेजना की दिशा में काम करना चाहिए। नहीं तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।

मरने नहीं दें शहरों के कुओं और तालाबों को
समाज सदियों से तालाब और कुएं बनाता रहा है। हमारे यहां सुख में, दुख में, उत्सव में और अकाल में तालाब बनाए जाते थे। लेकिन आज देश के कई छोटे और बड़े शहर भूजल की समस्या से तरसने लगे हैं। हमें केवल इतना करना है कि हमारे पुरखों ने जो तालाब और कुएं बनाए थोे, हमें उनको मरने नहीं देना है। उनको पुर्नजीवित करना है। अगर शहर के कुएं और तालाब भूजल से भरे रहेंगे तो कभी पानी की कमी नहीं रहेगी। पेड़ों को पानी मिलेगा, पेड़ों से पर्यावरण शुद्ध रहेगा। इसलिए तो मैं बार-बार कह रहा हूं, भूजल संरक्षण में जन सहभागिता बहुत जरूरी है। जन सहभागी के बिना जल संरक्षण संभव नहीं है।

देश के प्रधानमंत्री ने समझ का महत्व
पद्मश्री उमाशंकर कहते हैं, अगर इस देश में किसी ने जल संरक्षण के महत्व को समझा तो वह हैं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। वह उस राज्य के मुख्यमंत्री रहे जहां पर पानी की बड़ी किल्लत थी। उन्होंने गुजरात में इस दर्द को सहा था। जब वे देश के प्रधानमंत्री बनें तो उन्होंने जर संरक्षण के लिए अलग मंत्रालय बनाया जल शक्ति मंत्रालय। विभाग में उन प्रदेशों के लोगों जिम्मेदारी दी गई, जो प्रदेश पानी की कमी से जूझ रहे हैं। प्रधानमंत्री की ओर से सारे देश ग्राम प्रधानों को पत्र लिखकर मेड़बंधी को अपनाने की अपील की। जलशक्ति मंत्रालय की मदद से आज देश के 1.50 लाख गांवों में मेड़बंदी विधि का उपयोग करके किसान मालामाल हो रहे हैं। जहां कभी धान पैदा नहीं होती थी, आज वहां बासमती की खेती हो रही है।

पहले जलयोद्ध थे भागीरथ, मोदी इस युग के जलयोद्धा
इस देश के पहले जलयोद्ध हुए महाराज भागीरथ। भागीरथ ऊपर से पानी लाने के विशेषज्ञ थे। उन्होंने हिमालय से पानी डायर्ट करके नीचे लेकर आए। 2525 किलोमीटर की यात्रा तय करके जल लेकर आए। हमारे यहां जमीन के नीचे से जल लाने की कला किसी के पास थी तो वह माता अनसुया के पास थी। जो उन्होंने मंदाकिनी को लाकर दिखाया। तालाब के प्रबंधन की तकनीत भोज के पास थी। भोपाल में सबसे बड़ा तालाब बनवाया। आदिवासी क्षेत्रों में तालाब कैसे बनते हैं, माहाराणी दुर्गावती ने गोड़वाणा में बनाकर दिखाया। सामुदायिक आधार पर तीर्थों में कैसे जल को रोका जाए, उसकी तकनीक अहिल्याबाई होल्कर के पास था। महारानी होल्कर ने सभी तीर्थों के पास तालाब बनवाए। पूरी दुनिया में अगर आज भूजल संरक्षण की बात करता है तो वे हैं हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। अगर वास्तव में कहना हो तो हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस युग के जलयोद्धा हैं।

हम खतरे के निशान के पास पहुंच गए हैं
जलयोद्धा पांडेय बताते हैं, एक व्यक्ति को प्रतिदिन पीने के लिए पानी की जरूरत होती है 2.5 लीटर पानी। और वह प्रतिदिन बर्बाद करता है, 80 से 100 लीटर पानी। एक सामान्य परिवार को प्रतिदिन करीब 260 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। वह पानी बरबाद करता है 700 लीटर पानी। आजादी के समय हमारे आम आदमी के हिस्से में वार्षिक 5400 क्यूविक लीटर पानी था अब वह पानी घटकर 1700 से 1600 पर आ गया है। अगर यह घटकर वार्षिक 1500 क्यूविक लीटर पर आ गया तो खतरे के निशान पर आ जाएंगे। सोचिए, स्थिति कितनी गंभीर होने वाली है।

साभार : अमर उजाला 

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