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(Aalha Udal) आल्हा-ऊदल और बुंदेलखंड (Bundelkhand) के त्यौहार

(Aalha Udal) आल्हा-ऊदल की याद में बुंदेलखंड (Bundelkhand) के महोबा में श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा नहीं, बल्कि इसके दूसरे दिन मनाया जाता है रक्षाबंधन का त्योहार

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युद्ध के विजय उत्सव के रूप में शुरू हुआ कजलिया उत्सव

विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं, सुरम्य सरोवरों और मोहन नैसर्गिक छटाओं से परिपूर्ण बुंदेलखंड अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और लोक साहित्य की विविधता व लोक उत्सवों के लिए पूरे देश में अनूठी पहचान रखता है। इसका ही एक जीता-जागता प्रमाण इस लेख में देखने को मिलेगा।

भारत देश में सदियों पुरानी परंपरा है कि श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा को रक्षाबंधन का पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन बुंदेलखंड (Bundelkhand Heritage) की माटी में एक जगह ऐसा नहीं होता। उत्तर प्रदेश का महोबा जिला इकलौता ऐसा जिला है, जहाँ पूर्णिमा के दिन नहीं, बल्कि उसके अगले दिन पड़वा पर बहनें अपने भाइयों की कलाइयों पर राखी बाँधती हैं, यानि यहाँ रक्षाबंधन के एक दिन बाद यह पर्व मनाया जाता है। यह प्रथा थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि 800 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। जिले की गौरिहार तहसील और बारीगढ़ नगर परिषद के कई गाँवों सहित महोबा राज्य का हिस्सा रहे बुंदेलखंड के 52 गाँवों में श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा के दूसरे दिन रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है।

आल्हा उदल और पृथ्वीराज चौहान (Aalha Udal Aur Prithviraj Chauhan Ka Yuddh)

बात वर्ष 841 पुरानी यानि सन् 1182 की है। बुंदेलखंड के उरई के प्रतिहार वंश के राजा माहिल, जो राजा परमाल के साले थे, के कहने पर महोबा के राजा परमाल ने अपने वीर सेनापतियों आल्हा और ऊदल को राज्य से निष्कासित कर दिया था। इस निष्कासन को लेकर पृथ्वीराज चौहान के साथ राजा परमाल के युद्ध की बीते लेख के अलावा एक अन्य कहानी प्रचलित है, जो हम आपको बताने जा रहे हैं।

माहिल रिश्ते में आल्हा-ऊदल (Aalha Udal) का मामा लगता था। आल्हा-ऊदल के पिता रणभूमि में दुश्मनों के हाथों मारे गए थे, उस समय दोनों भाइयों की उम्र बहुत कम थी। कहा जाता है कि पिता की मृत्यु के बाद राजा परमाल ने आल्हा का पालन-पोषण किया। वे राजा परमाल की पत्नी मलिन्हा के भी बहुत प्रिय थे। 

माहिल ने षड्यंत्र रचकर आल्हा और ऊदल को राज्य से बेदखल करवाने के बाद पृथ्वीराज को खबर भेजकर दल-बल के साथ महोबा बुलवा लिया था, क्योंकि वह यह बात अच्छी तरह जानता था कि आल्हा-ऊदल राज्य में रहेंगे, तो कोई भी राजा एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बाद भी जीत नहीं सकेंगे। राज्य से बेदखल किए जाने के बाद आल्हा और ऊदल ने कन्नौज के राजा लाखन राणा के यहाँ शरण ले ली, और वहीं गुजर-बसर करने लगे। बस फिर क्या था, चौहान की सेना ने इसे सुनहरा मौका समझकर महोबा को चारों तरफ से घेर लिया और खुद पृथ्वीराज चौहान सालट के जंगलों में रुक गए। 

यह रक्षाबंधन के ही दिन की बात है। राजा परमाल की पत्नी मलिन्हा और उनकी पुत्री चंद्रावलि उस समय 5200 डोलों के बीच 1400 सखियों के साथ कजलियाँ (अंकुरित गेंहू) विसर्जित करने के लिए कीरत सागर तालाब की ओर जा रही थीं। रास्ते में पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने उन पर आक्रमण कर दिया। जैसे ही पृथ्वीराज चौहान की सेना ने चंद्रवलि का डोल उठाया, रानी मलिन्हा डोले से निकलकर हाथी पर चढ़ गई और पृथ्वीराज चौहान को ललकार दिया। ललकार सुनते ही 5200 डोलों से नारियाँ तलवार लेकर युद्ध के लिए निकल पड़ी थीं। परमाल की सेना ने आक्रमण किया, लेकिन आल्हा-ऊदल के बिना चौहान की सेना के सामने टिक न सकी। इस युद्ध के दौरान राजा परमाल के बेटे राजा अभई की मृत्यु हो गई।

पृथ्वीराज चौहान की योजना राजकुमारी चंद्रावलि का विवाह उनके बेटे सूरज सिंह से कराने की थी। ऐसे में, युद्ध रोकने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने राजा परमाल के समक्ष एक के बाद एक कई शर्तें रख दीं। पृथ्वीराज चौहान की इन शर्तों में पारस पत्थर, नौलखा हार, कालिंजर व ग्वालियर का किला, खजुराहो की बैठक के साथ राजा परमाल की बेटी रानी चंद्रावल को उसे सौंपने की माँग शामिल थी। जहाँ एक तरफ रानी मलिन्हा, राजकुमार ब्रह्ना, रंजीत व अन्य दरबारी इन शर्तों को सुनकर अपने आपे से बाहर थे, वहीं दूसरी तरफ उरई नरेश माहिल ने राजा परमाल को पृथ्वीराज चौहान की शर्तें मान लेने का सुझाव दिया। 

राजा परमाल के पास युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं था। सेना में आल्हा-ऊदल के न होने पर महारानी मलिन्हा ने युद्ध किया। दोनों सेनाओं के बीच के इस युद्ध में राजकुमार अभई के अलावा रंजीत भी मारे गए। चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुए युद्ध में कीरतसागर की धरती खून से लाल हो गई। युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गए। रानी मल्हना ने महोबा को संकट में देख जगनिक को आल्हा, ऊदल को किसी तरह मनाकर महोबा लाने के लिए भेजा। जब यह खबर कन्नौज पहुँची, तो आल्हा, ऊदल और कन्नौज नरेश लाखन अपनी पहचान छिपाते हुए साधु के वेश में कीरत सागर के मैदान में पहुँच गए। भयानक युद्ध हुआ, जिसे भुजरियों के युद्ध के नाम से जाना जाता है। 

आल्हा उदल और पृथ्वीराज चौहान की आखरी लड़ाई (Aalha Udal vs Prithviraj Chauhan) 

जैसे ही पृथ्वीराज की सेना राजकुमारी चंद्रावलि को ले जाने लगी। वीर सैनिक आल्हा-ऊदल सेना पर कहर बनकर टूट पड़े और उन्होंने राजकुमारी चंद्रावलि को बचा लिया। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना भाग खड़ी हुई। कीरत सागर मैदान में हुई यह जंग आज भी आल्हा-ऊदल की तलवार की धार का प्रमाण देती है, जिसके आगे पृथ्वीराज चौहान की ताकतवर सेना भी टिक न सकी। 

कीरत सागर के इसी मैदान में दोनों सेनाओं के बीच जबर्दस्त युद्ध छिड़ जाने पर बुंदेलखंड की बेटियाँ उस दिन कजलियाँ विसर्जित नहीं कर सकीं। लेकिन जंग में विजय के शंखनाद के बाद चंद्रावलि और उनकी सहेलियाें ने आल्हा-ऊदल के साथ ही अपने भाइयों को राखी बाँधी। इसके बाद कजलियों को विसर्जन किया गया। तभी से महोबा रियासत में एक दिन बाद कजलियाँ विसर्जित करने और एक दिन बाद रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है। इस युद्ध में बुंदेली राजा परमाल की जीत और आल्हा व उनके छोटे भाई ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक के रूप में हर वर्ष कीरत सागर मैदान में सरकारी खर्च पर 'विजय उत्सव' के रूप में ऐतिहासिक कजली मेले का आयोजन यहाँ की अनूठी परम्परा है, जो कि विगत 8 शतकों से बरकरार है। बहनें अपने भाइयों को अंकुरित कजलियाँ देकर उनसे अपनी रक्षा का वचन लेती हैं और कीरत सागर में कजली विसर्जन करती हैं। 

कीरत सागर तालाब के पास आयोजित होने वाले कजलियाँ महोत्वस में लाेकगीत, आल्हा गायन और राई नृत्य जैसी सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ देने के लिए कई राज्यों के कलाकार आते हैं। इस महोत्सव की छटा देखते ही बनती है। इस कजली उत्सव को देखने के लिए छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, बांदा, झांसी, उरई सहित बुंदेलखंड क्षेत्र के लोग बड़ी संख्या में महोबा पहुँचते हैं। सावन माह में कजली मेला के समय गाँव-देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहाँ के वीर बुंदेलों में आज भी 800 वर्ष पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है।

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